प्यार और जंग में सबकुछ जायज़ है. इस लाइन को कई बार सुना है पर क्या ये लाइन नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में भी सटीक उतरती है? नक्सलवाद की तुलना आतंकवाद से की जा सकती है या नहीं अभी तक हम इस बहस के अंत में भी नहीं पहुंचे हैं. नक्सलवाद से ज्यादा नक्सली हिंसा का खात्मा जरूरी है. लेकिन सुरक्षाबलों को इस लड़ाई में पूरी छूट देकर हम किसका सफाया करने जा रहे हैं? सीमापार से होने वाले आतंकवाद पर ये साफ है कि दुश्मन विदेशी है, लेकिन नक्सली समस्या इससे उलट है. गांवो में, जंगलों में रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों को नक्सली करार देकर मारना सबसे ज्यादा आसान है साहब. फिर क्या राजनाथ सिंह उस परिवार के सवालों को भी फेस करने को तैयार होंगे?
देश में एक अकेली औरत पिछले 13 सालों से सुरक्षाबलों को मिली खुली छूट के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रही है. सरकारी जेल में पुलिसिया ज्यादती का शिकार होने वाली सोनी सोरी को देश की सर्वोच्च अदालत बरी कर देती है. लेकिन क्या इरोम शर्मिला के ये 13 साल हम लौटा सकते हैं? क्या सोनी सोरी को वो सबकुछ वापस दिया जा सकता है जो उसने खोया है? और हम सीधी लड़ाई में उतरने को तैयार हो रहे हैं. किससे लड़ना चाहते हैं हम, हमारे ही देश के उन लोगों से जो या तो मुख्यधारा से भटक गए हैं या जिन्हें मुख्यधारा से ढकेला गया है.
मानिए या मत मानिए पर एक सच ये भी है कि जहां भी इस देश में नक्सली हैं वहां के जंगल बाकी इलाकों से ज्यादा सुरक्षित हैं. नक्सल इलाकों में संस्कृति किस तरीके बची हुई है उस बारे में स्व. प्रभाष जोशी जी की कही हुई बात मुझे आज तक सटीक लगती है. गोली किसी को पूछ कर नहीं लगती. फिर नक्सली इलाके सीमा से ज्यादा दुर्गम हैं क्योंकि वहां कोई लकीर नहीं है जो आपमें और दुश्मन में अंतर बताए.
मैं कभी नहीं कह रहा कि नक्सलवाद को उपजने दिया जाए या नक्सलियों को माफ किया जाए. लेकिन मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि क्या हम अपनी ही जमीन के भीतर सीधी लड़ाई के लिए तैयार हैं. जब रास्ता बंदूक से तलाशा जाता है तो परिणाम में खून जरूर मिलता है. इस देश ने अपने दो प्रधानमंत्री सिर्फ अंदरूनी लड़ाइयों की वजह से खोए हैं. अगर हम बंदूक का रास्ता चुन रहे हैं तो इसका मतलब साफ है कि हम बाकी सारे दरवाजों को बंद कर रहे हैं.
राजनाथ जी, एक गृहमंत्री के तौर पर आप पुलिसिया व्यवस्था के मुखिया हैं. उनको आ रही दिक्कतों को फेस करना आपकी जिम्मेदारी भी है. लेकिन क्या फिर आप उन परिवारों को फेस करने के लिए तैयार हैं जो जनसंहार में मारे जाएंगे. मैंने जो कुछ लिखा है वो इसलिए नहीं कि ये सबकुछ नक्सलियों के खिलाफ है. बल्कि इसलिए क्योंकि ये मानवाधिकार के खिलाफ है. जिस देश में एक अपराधी के लिए भी अधिकार दिए गए हों वहां मानवाधिकार को किनारे पर करने की बात कैसे सोची जा सकती है?
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