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21 Jun 2016

अपनी महत्ता को "कट" ना करिए

कट, शॉट्स, कोर्ट, फिल्म... ये वो शब्द हैं जो पिछले सप्ताह में सबसे ज्यादा सुने गए हैं. संदर्भ साफ तौर पर उड़ता पंजाब है. इस फिल्म की रीलीज से ठीक पहले उपजे विवाद ने इस फिल्म को और ज्यादा सुर्खियों में ला दिया. हालांकि उड़ता पंजाब के साथ अनुराग कश्यप जैसा नाम जुड़ा था. इस कारण ये तो साफ था कि इस फिल्म को दर्शकों का एक वर्ग देखने जरूर जाएगा. लेकिन हालिया विवाद ने लोगों में इस फिल्म के प्रति एक अलग सोच जगा दी. देश में फिल्म प्रमाणन के लिए बनाए गए केंद्रीय फिल्म प्रमाणन बोर्ड ने इस फिल्म को ये कहते हुए रीलीज से पहले रोक दिया कि इस फिल्म में तमाम जगहों पर कट्स और फिल्म के नाम में बदलाव की जरूरत है. शायद ये फिल्म कट्स के साथ आती तो हम समझ नहीं पाते कि इसमें गलत क्या है. लेकिन एक लड़ाई हुई, मामला पहुंचा कोर्ट में, और कोर्ट के आदेश के बाद फिल्म पहुंची सिनेमाघरों में वो भी सिर्फ एक कट के साथ. हालांकि मैं फिल्मों का प्रशंसक हूं (आलोचकों की श्रेणी से अलग रखें) लेकिन मैंने ऐसा फिल्म प्रमाण पत्र पहले नहीं देखा था जिसमें लिखा हो कि फिल्म को कोर्ट ने पास किया है. खैर तमाम विवादों के बाद फिल्म सिनेमा घर में पहुंची. लेकिन फिल्म देखने के बाद जो सवाल मन में कौंधते हैं वो ये कि क्या फिल्म को लेकर जो कुछ कहा गया, वो जरूरी था?

2 घंटे और 28 मिनट की इस फिल्म को देखकर कहीं भी ये महसूस नहीं होता कि इस फिल्म में, कम से कम जो दिखाई जा रही है उसमें किसी भी तरीके के किसी कट की जरूरत थी. अगर आप गालियों से परेशान हैं तो ये बताइए कि क्या इस देश के वयस्कों को गाली-गलौच की कोई जानकारी नहीं है? अगर कोई परिवार ऐसी फिल्म देखने जा रहा है तो उस पर क्या फर्क पड़ेगा जैसे तर्क क्या इससे पहले उन फिल्मों में लागू नहीं होते जो गालियों से भरी पड़ी हों. और अगर आपको उन चंद द्विअर्थी शब्दों की चिंता है तो इससे पहले बड़े-बड़े पोस्टरों के साथ रीलीज होने वाली देश की वल्गर कॉमेडी फिल्मों के बारे में प्रमाणन बोर्ड को चिंता क्यों नहीं हुई? दरअसल फिल्मों को हम समाज का आइना तो जरूर कहते हैं लेकिन पता नहीं क्यों एक अजीब सी लकीर खींचना चाहते हैं. इस तरह की फिल्मों को रोकना जो किसी समस्या को, किसी वास्तविक क्षेत्र के नाम को लेकर बनती हों रोकना क्या उस समस्या पर रोक लगाना है या समाज और देश में फैली उस समस्या को ढकना है? फिल्म प्रमाणन बोर्ड का काम क्या है ये वो बेहतर जान सकते हैं पर आलोचनाओं को रोकना और संस्कृति के नाम पर हॉलीवुड फिल्मों की सेंसरशिप करना (इससे पहले पहलाज निहलानी की जेम्स बांड फिल्म की सेंसरशिप को लेकर काफी आलोचना हो चुकी है और वो ट्विटर पर संस्कारी जेम्स बांड के नाम से ट्रेंड भी कर चुके हैं) एक सवाल जरूर खड़े करता है.

CBFC के उपर इससे पहले भी सवाल खड़े होते रहे हैं. लोकतंत्र में आलोचना और सवालों का उठना कुछ गलत नहीं है. लेकिन देश का संविधान जिस अभिव्यक्ति की आजादी की स्वतंत्रता देता है वो आजादी की स्वतंत्रता दिखाई कहां देती है? हमारे देश में सबसे ज्यादा फिल्में बनती हैं. क्षेत्रिय सिनेमा को शामिल कर लिया जाए तो आज भारत में फिल्म उद्योग काफी लोगों को रोजगार देता है. लेकिन इसके बावजूद हमारे देश में सशक्त सिनेमा की काफी कमी देखने को मिलती है, उसका कारण क्या इस तरीके की रोकें और सीमितताएं हैं? एक ओर जहां हॉलिवुड में फिल्मों में वो अपने देश के राजनेताओं को, राष्ट्रीय झंडे को, असली जगहों को, इमारतों को बड़ी आसानी से दिखा सकते हैं वहीं हमारे यहां ये फिल्मों की सेंसरशिप के कारण बन जाते हैं. फिल्में क्रांति का कारण भी रही हैं. लेकिन हम शायद उसे वैसे देखना नहीं चाहते. आज भी कई फिल्मों के बारे में जब हमारे घर के बड़े बताते हैं कि इस फिल्म में उस फलाने का किरदार निभाया गया था या ये फिल्म अंग्रेजों के खिलाफ थी तो उसमें साफ विरोध ना होना समझ आता है. लेकिन आज के दौर में सिल्वर स्क्रीन से होने वाली आलोचना को रोकने के लिए सेंसरशिप का डर दिखाना खुला नहीं बल्कि गुलामी का माहौल तैयार करता है. 

फिल्मों को बनाने वालों के मन में हमेशा ये बात रहती है कि जो वो दिखाना चाहते हैं उसमें जो कुछ स्वीकार्य ना हो उसे छोड़कर बाकि को सिल्वर स्क्रीन पर दिखाने की अनुमति मिल जाएगी. मैं ये नहीं कहूंगा कि देश में कोई खास माहौल चल रहा है. देश में फिल्म निर्माताओं को हमेशा सेंसरबोर्ड से दिक्कत रहती है साथ ही इस देश के सिस्टम से भी (एक बार प्रकाश झा से बातचीत की थी, उसका संदर्भ भी कुछ ऐसा था ) लेकिन अगर ऐसा माहौल नहीं है तो भी ऐसा माहौल बनने ना दिया जाए. जब हम उन फिल्मों को पास कर सकते हैं जो कि सेक्स स्टोरी को पेश करती हैं, हालांकि मैं उनका भी विरोध नहीं करता पर क्या वो हमारी संस्कृति में फिट बैठती हैं? जब हम उन फिल्मों को नहीं रोकते जो कि कॉमेडी के नाम पर अश्लीलता को परोसती हैं, जब हम उन फिल्मों
को नहीं रोकते जो कि शरीर को, गालियों को परोसती हैं तो फिर हमें किसी राज्य के नाम से दिक्कत क्यों होती है? फिल्मों में अक्सर सच्ची कहानियों को शामिल किया जाता है. तो उड़ता पंजाब से क्या दिक्कत है? क्या पंजाब में ड्रग्स की कोई समस्या नहीं है? क्या सेंसर बोर्ड ऐसा कोई सर्टिफिकेट दे सकता है? नहीं. तो फिर आप किसी घटना पर आधारित फिल्म में जगहों के नाम, किसी खास चीजों को दिखाने से क्यों रोकना चाहते हैं?

दरअसल आज का युवा अपने देश में एक स्वतंत्रता चाहता है, आप उसे प्रेरित करिए बांधिए मत. फिल्म में कुछ ऐसा होगा जो देखना नहीं चाहिए तो वो नहीं देखी जाएगी. जब इस देश का प्रधानमंत्री सेल्फ अटेस्टेशन का ये बोलकर समर्थन करता है कि हमें अपने देश के लोगों पर भरोसा करना सीखना होगा तो फिर किसी और को इस सिस्टम में क्या दिक्कत है? कोर्ट ने अपने फैसले में जो कुछ भी कहा है वो काबीले तारीफ है. हमें चाहिए कि हम ये तय करें कि क्या देखने लायक है और क्या नहीं. अगर समस्या पर नजर नहीं डालेंगे तो समस्या खत्म नहीं हो जाएगी. अगर कोई दिक्कत है तो उस ओर ध्यान देना होगा. दिक्कत नहीं भी है तो क्या कोई फिल्म फिक्शन नहीं हो सकती? मेरी पसंदीदा फिल्मों में से एक व्हाइट हाउस डाउन में अमेरिकी राष्ट्रपति भवन में हमला होने की कहानी है, क्या ये दिखाने से लोगों ने मान लिया कि ऐसा कुछ हो सकता है? नहीं तो फिर सेंसर बोर्ड ने एक फिल्म को रोकने की ऐसी कोशिश क्यों कि जिसे कोर्ट से मुंह की खानी पड़ी हो? सरकारी सिस्टमों को बाबूगिरी से बाहर अपनी छवि बनाने की जरूरत है वरना जिस माहौल की हवा बनाई जा रही है लोगों को वो माहौल महसूस होने लगेगा. हम लोकतंत्र में हैं आजाद है, उड़ रहे हैं. ये उड़ान ड्रग्स की नहीं है... इसलिए हमें उड़ने दीजिए... हमारी कल्पनाओं को पंख लगने दीजिए... हम उंचे उडेंगे तो बाकि का सर हमें देखने के लिए खुद ही उपर उठ जाएगा.