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24 Dec 2012

आवाज़ इन्हें भी चाहिए.

रायपुर आने के साथ ही पहला काम  किया कि जिस शिक्षाकर्मी आन्दोलन के बारे में फेसबुक पर लिख रहा था उसका जायज़ा लेने का। तो चल पड़ा उस आन्दोलन की ओर। पक्का पत्रकार तो हूँ नहीं इसलिए एक पेन, नोटपेड और अपने मोबाइल के साथ पहुँच गया वहां। बहुत देर तक सप्रे शाला मैदान में घूमता रहा। यही वो जगह है जहाँ इन आन्दोलन कर्मियों को शासन ने जगह दी है। अच्छा लगा ये देखकर कि हमारे यहाँ आन्दोलन को जगह तो दी जाती है। काफी देर तक घूमते रहा, भाषण सुनता रहा, नारों को सुनता रहा। फिर निकाला अपना मोबाइल और लगा फोटो खींचने। कुछ देर तक यही क्रम चलता रहा। पर जब अपनी नोटपेड पर घटनाओं को नोट करना शुरू किया तो कुछ लोगों का ध्यान गया। लोग मेरे पास आ गए और पूछने लगे की भैया कहाँ से हो। जब बताया की पत्रकारिता की पढ़ाई करता हूँ दिल्ली में तब उनके चेहरे पर एक चमक आ गई। आन्दोलन के अगुवाओं को बुलाया गया। बातचीत शुरू हो गई। उन्होंने बताया की राज्य सरकार ने उनसे वादा किया था कि उन्हें 6वां वेतनमान मिलेगा और उनका संविलियन किया जायेगा। पर सरकार अब इससे पीछे हट रही है। पूरे राज्य के 1.86 लाख शिक्षाकर्मियों ने अनिश्चितकालीन हड़ताल की है। सारे शिक्षाकर्मी धरना स्थल पर जमे हुए हैं। ना धूप की परवाह ना ठण्ड का डर है। केवल अपनी मांगो को मनवाना एकमात्र लक्ष्य है। अब तो उन्होंने टेन्ट लगवा लिया है। जो देखा वही बता रहा हूँ। आप भी देखें कि कैसे ये सब जमे हुए हैं।

बहुत देर तक इनके साथ घूमता रहा। और ये सब भी इस उम्मीद में मुझसे बात करते रहे जैसे मैं इस खबर को किसी बड़े चैनल पर चलवा दूंगा। ये सब मुझसे जो भी बात करते थे अंत में ये जरुर पूछते थे कि ऐसा क्या करें कि राष्ट्रीय चैनल भी इनको कवरेज दें। यहाँ मैं निरुत्तर हो जाता था। सोशल मीडिया के बारे में जितना सुना था वो दिल्ली में ही सुना था। पर इनको क्या बोलता कि ब्लॉग पर लिख दूंगा? या फेसबुक पर शेयर कर दूंगा। इतने में कुछ मीडिया के मित्र आ गए। पुराना परिचय है तो बातचीत शुरू। उन्होंने बताया कि चुनाव के समय सरकार ने वादा किया था, और अब चुनाव से पहले ये आन्दोलन कर रहे हैं। इसके पीछे राजनीती हो या इनकी मांग पर इतना तो पक्का है के इनकी हिम्मत बहुत है। रोज़ ट्रेन से रायपुर आते हैं और शाम को चले जाते हैं। महिलाएं छोटे छोटे बच्चों को लेकर आती हैं। अब देखिये कि इन बच्चों को लोकतंत्र की वास्तविक शिक्षा मिल रही है। क्या पता इनमें से कौन अभिमन्यु की तरह सब सीख रहा हो। विरोध के तरीके भी ऐसे अपनाये जा रहे हैं कि लोगों को आकर्षित किया जा सके। आखिर जो दिखेगा वही तो बिकेगा। लोग नाच गाकर विरोध कर रहे हैं।

विरोध का ये तरीका शायद अजीब लगे पर किया भी क्या जा सकता है। संकल्प लिया है की इस बार वोट जरुर डालेंगे। (निश्चित तौर पर उनके खिलाफ जो इनकी मांगों को नहीं मानेगा।) ये आन्दोलन कर्मी दिनभर यहीं रहते हैं। प्रदर्शन करते हैं। नाचते हैं। गाते हैं। पूछने पर बताते हैं कि अब यही तरीका बचा है। नंगाड़े बजाकर सांकेतिक प्रदर्शन भी किया है। (कुम्भकर्ण को भी इसी तरीके से उठाया जाता था।) लेकिन अभी तक सरकार पर कोई असर नहीं पड़ा है। सरकार मस्त है। राष्ट्रीय मीडिया दिल्ली के आन्दोलन को कवर करने में लगा हुआ है। फेसबुक पर ये लोग हैं नहीं। और क्षेत्रीय मीडिया अपने बुलेटिन में 1-2 शॉट दिखाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेता है। तो क्या करें आन्दोलन तो जारी रखना ही है। कईयों की उम्मीद बंधी है इससे। ये नाचते हैं इस सरकार के खिलाफ जो इन्हें अपनी धुनों पर नचाती है। कभी चुनाव में तो कभी जन-गड़ना में। इनके चेहरे की हंसी देखिये। लोकतंत्र पर हंसी लगती है। आज शिक्षक किस भूमिका में है देखना चाहेंगे तो देखिये-

हाथ में भारत का झंडा अभी भी लोकतंत्र पर इनके विश्वास को दिखाता है। पुरे शरीर पर नारे लिखे कपड़े पहने हैं। शायद किसी जोकर की भांति लग रहे हों। पर जब व्यवस्था इनसे मजाक करे तो मजाकिया तो दिखना ही पड़ता है। पीछे अपने संगठन का बैनर लगा रखा है। "शिक्षक संघर्ष समिति। विकास खण्ड - कसडोल". इससे पता चला कि राज्य के सारे शिक्षाकर्मी संघ ने एक मंच तले ये आन्दोलन किया है। जरा इनके कपड़ों पर लिखी बातों को बताऊँ- "आमरण अनशन", "भूख की जंग में, हम सब संग में", "संविलियन और 6वां वेतनमान" और "शिक्षाकर्मी एकता जिंदाबाद" जैसे नारे लिखकर ये अपने साथियों को भी उत्साहित कर रहे हैं। और घूमा तो पाया कि यहाँ तो एक अलग ही दुनिया बस रही है। ये आन्दोलनकारी रोज़ के अख़बारों की तुलना कर रहे हैं कि किसने इनके आन्दोलन को कितनी कवरेज दी। कम कवरेज देखकर गुस्सा भी करते है, और कोसते भी हैं। इस बीच मंच से भजन गाने की आवाज़ आती है। ध्यान से सुनिए तो पता चलता है कि धुन भजन की है बोल बदल दिए गए हैं। इसी तरीके से फ़िल्मी गानों का रूपांतरण हुआ है। ऐसे भजन और गाने सुनकर अख़बार से ध्यान हटता है और तालियों से साथ दिया जाता है। एक से एक कवि बैठे हैं यहाँ तो। इनके टेन्ट में बैठा था तो पता चला कि नगर निगम ने अस्थाई शौचालय भी बना दिया है। तभी एक जनाब बोल पड़े कि विपक्षी पार्टी निगम में है इस कारण समर्थन कर रही है। टेन्ट में आन्दोलनकारियों के कपड़े सूख रहे थे। अब यही बसेरा है इनका। जब तक मांग पूरी ना हो जाये। 

इतना सब अनुभव करके जब चलने का सोचा तो इनसे विदा लेने गया। इन्होंने कहा कि एक चाय तो पीते जाइये। मना किया तो कहा कि "शिक्षाकर्मी हैं सर कुछ खिला नहीं सकते पर चाय पिला सकते है। बढ़िया चाय पिलायेंगे अदरक वाली।" फिर मना नहीं कर पाया। चाय पीने चले तो देखा कि यहाँ तो पूरा बाजार सजा हुआ है। इस आन्दोलन से भी कईयों की रोजी रोटी चल रही है। सब्जी के ठेले लगे हैं। कपड़े भी बिक रहे हैं। चलती फिरती सोडा की दुकानें लगी हैं। चाय समोसे वाले भी अपने ग्राहक ढूंढ रहे हैं। सिगरेट वाले तो घूम घूम कर अपना सामान बेच रहे हैं। और हाँ पानी का तो सबसे बड़ा बाजार है। यहाँ तक की पानी वालों ने तो अपनी ब्रांडिंग भी कर दी है। पर एक बात जो अंत में बताना चाहता हूँ वो ये कि यह चाय भी एक कारण से पिलाई गई थी। जब तक चाय ख़त्म नहीं हुई यही चिंता होती रही कि कैसे इस आन्दोलन को आवाज़ मिले। कभी कभी ये शंका भी उत्पन्न होती थी के कहीं दिल्ली से सबक लेकर सरकार इन्हें भी ना कुचल दे। गिरफ़्तारी का डर भी बना हुआ है। पर जोश में कोई कमी नहीं है। सबकी आँखों में उम्मीद है के जल्द कुछ अच्छा होगा। चाय खत्म हो गई। इस बात के साथ विदा हुआ कि "देखिएगा सर अगर कुछ हो पाए तो।" मैने कहा चिंता ना करें जल्द ही अच्छा होगा। तब तो सर खूब फटाके फोड़ेंगे और आपको जरुर याद करेंगे। 

तो इन सबको ध्यान में रखकर में भी अपने कर्तव्य की इतिश्री ही कर रहा हूँ। ब्लॉग पर घटना को बता दिया। और फेसबुक पर शेयर कर दूँगा। अगर आपमें से किसी को सही लगे तो सोशल मीडिया की ताकत दिखा दीजिये।

1 comment:

  1. बढ़िया लेखन ..हर पहलु को छुआ अनुज..लिखते रहो..आवाम की आवाज शिक्षाकर्मीयों के साथ है..हर ​मीडिया की अपनी सिमांए हैं..रीजनल, लोकल, नेशनल इसीलिए बांटा गया है..लेकिन इस तरह ग्राउंड जीरो से ही खबरे आगे बढ़ती है..एक चार पन्ने के दैनिक अखबार से ही नत्था की स्टोरी पिपली लाईव बनी थी..याद है..अच्छी कोशिश

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