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27 Sept 2014

एक ख़त नवाज़ शरीफ़ के नाम


प्रिय नवाज़ शरीफ़ साहब,

कुछ ऐसे रहस्य होते हैं जिनके बारे में सबको पता होता है. आप संयुक्त राष्ट्र में अपने भाषण में क्या बोलेंगे ये भी एक ऐसा ही रहस्य था. प्रधानमंत्री मोदी के अमेरिका में पहुंचने के बीच केवल यही एक खबर थी जिसने भारतीय टीवी चैनलों में अच्छी खासी जगह बनाई. दरअसल पाकिस्तान के संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर के राग अलापने के हम सभी आदि हो चुके हैं. लेकिन फिर भी इस बात की उम्मीद तो रखी ही जाती है कि पाकिस्तान कभी तो इससे आगे बढ़ेगा. लेकिन इस बार भी ऐसी कोई उम्मीद बेमानी ही साबित हुई. आपने संयुक्त राष्ट्र में कश्मीर, दोनों देशों के बीच के विवाद और आतंकवाद पर आपकी लड़ाई के मुद्दे को हमेशा की तरह फिर उठाया.

आपने अपने संबोधन में भारत और पाकिस्तान के बीच बातचीत को जारी रखने की बात कही. आपने कहा कि दोनों देशों को अपने आपसी विवाद और व्यापारिक रिश्तों को मजबूत करने के लिए आपस में मिलते रहना चाहिए. आपने कहा कि शांति और सौहार्द से फायदा दोनों देशों को होगा. इसी बात को जारी रखते हुए आपने ये भी कहा कि आपका देश भारत और पाकिस्तान के बीच विदेश सचिव स्तर की वार्ता को रद्द करने से निराश हुआ है. आपने इसे एक गवांया हुआ मौका बताया.

लेकिन ज़रा शरीफ़ साहब इस बात को भी साफ तौर पर दुनिया के सामने कह देते कि ये मौका दोनों देशों ने इसलिए गंवाया है क्योंकि पाकिस्तान इस द्विपक्षीय वार्ता में भी एक तीसरे पक्ष से पूछ कर अपना रूख स्पष्ट करता चाहता था. साहब ये हम ही थे जो पहले से रुकी इस बातचीत को तैयार हुए थे. बातचीत के लिए तैयार होने का मतलब झुकना नहीं होता बल्कि ये तो उसी अमन और शांति के लिए हमारी ओर से किया गया प्रयास था जिसे शब्दों में पिरोकर आपने कहा. अगर बातचीत आपको भारत से करनी थी तो आप अपना रुख तैयार करते, कश्मीर के अलगाववादियों के रुख को जानकर आगे बढ़ना क्यों ज़रूरी था ये भी बता देते तो अच्छा होता. ये बात बार बार कहने की जरूरत नहीं, आप भी एक लोकतांत्रिक सरकार चला रहे हैं दो पक्षों का मतलब आप भी बखूबी समझते होंगे.

पाकिस्तानी प्रधानमंत्री साहब, दोनों देशों की बातचीत को आप आगे भी ना बढ़ा पाए थे कि आपने अपनी बातचीत में हमेशा की तरह पूरी दुनिया को न्यौता दे दिया. कश्मीर में जनमत संग्रह की बात आपने कही. संयुक्त राष्ट्र को याद दिलाया कि आपकी नज़र में कश्मीरियों को किस वादे के पूरा होने का इंतजार है. आपने कश्मीर की पीढ़ियों के हिंसा से परेशान होने की बात कही. आपने कहा कि कश्मीरियों को उनके मौलिक अधिकार से वंचित रखा जा रहा है. कश्मीर के मुद्दे को सुलझाने के लिए आपने लाहौर समझौते को याद दिलाया वहीं दूसरी ही लाइन में आपने सारे वैश्विक समुदाय को इस मुद्दे को सुलझाने के लिए अपील और आमंत्रण दोनों दे दिया. कश्मीर के मसले पर आपने ये भी कहा कि आप आपसी बातचीत के लिए तैयार हैं. और इस मुद्दे में एक पक्ष होने की वजह से इसका समाधान चाहते हैं.

शरीफ़ साहब ज़रा जो कुछ आपने कहा उसे दोबारा सोचिए, क्या आप एक ही समस्या को तीन तरीके से सुलझाना चाहते हैं? आप पूरी दुनिया को कश्मीर मसले पर क्या सोचकर आमंत्रित करते हैं? आपने ही कहा कि कश्मीर के मसले पर आप एक पक्ष हैं तो साफतौर पर दूसरा पक्ष भारत है. और फिर दो पक्षों के बीच में वैश्विक मंच को आमंत्रित करना कहां तक उचित है? आपने कश्मीरियों के जिस हिंसा से ग्रस्त होने की बात कही वो भी तो आपकी जमीन पर तैयार की गई है. जिन आतंकवादियों को आपने पनाह दी उन्होंने ही उस वादी को लाल किया क्या ये बात ध्यान में है आपके? किस कश्मीर में जनमत संग्रह चाहते हैं आप, वहां जो आज़ादी के बाद से अपने राज्य में पूरे निष्पक्ष तरीके से सरकार का चुनाव करता है या वहां जहां कई सालों तक लोकतंत्र को दबाकर तानाशाह का शासन रहा है. वैसे आपको कश्मीर समस्या के लिए लाहौर समझौता ही क्यों याद आता है? शिमला समझौते पर भी आपके देश के ही प्रतिनिधि ने दस्तखत किए थे. हमारे आपसी विवाद के लिए शिमला समझौता कोई आधार क्यों नहीं हो सकता? वैसे कश्मीर के मसले पर आपसी बातचीत के लिए तैयार हैं तो वो तैयारी दिखाइए. दिखाइए कि आप यहां आतंकवाद को रोकने के प्रयास कर रहे हैं. दिखाइए कि आप सरहद पर किसी भी तरीके की हिंसा नहीं चाहते. कश्मीर पर आपके इस रूख की आदत हो चुकी है हमें. समस्या का समाधान अगर आप चाहते हैं तो तिराहा ना दिखाइए. एक राह तैयार करिए जिसमें सिर्फ और सिर्फ आप और हम चलेंगे.

संयुक्त राष्ट्र के मंच से वैसे तो आपने काफी कुछ कहा है, लेकिन सुरक्षा और आतंकवाद पर आपके रुख का हमें हमेशा से इंतजार रहता है. आपने हमेशा की तरह ये तो दोहराया कि आप आतंकवाद के खिलाफ हैं. आपने दुनिया को ये भी बताया कि आतंकवाद से सबसे ज्यादा आपने ही खोया है. इस लड़ाई में आपको काफी नुकसान हुआ है. आपने कहा कि आप आतंकवादियों से लगातार लड़ाई लड़ रहे हैं. इस लड़ाई में आपको जन-धन के साथ ही संसाधनों की काफी क्षति हुई है.

हमने ये सब सुना लेकिन वो नहीं जो शायद हम हमेशा से सुनना चाहते हैं. हम जानना चाहते हैं कि कब आपके देश में पैदा होने वाले आतंकवाद पर आप पूरी लगाम लगा पाएंगे. कब आपके देश में इन ताकतों को कुचला जाएगा. आप जिस आतंकवाद से लड़ने की बात करते हैं वो जमात-उद-दावा के रूप में आपके देश में घूम रहा है, तो फिर आप लड़ किससे रहे हैं? ये सच है कि आपने इस लड़ाई में काफी कुछ खोया है, लेकिन क्या ये सच नहीं कि ये आपका ही बोया हुआ था. साहब आपने संसाधनों को खोने की बात करके एक बार फिर हथियारों की दौड़ की शुरूआत की है. मुंबई हमले के सबूतों के बंडल देकर भी हमने क्या आपकी जमीन से न्याय पा लिया?

नवाज़ शरीफ़ साहब, तानाशाही के दौर के बाद पाकिस्तान में आप लोकतांत्रिक तरीके से चुनकर आए. आपने खुद तख्ता पलट होते देखा है. आपने ही इस बात को माना था कि कारगिल युद्ध आपकी जमीन से की गई शुरूआत का नतीजा था. आपसे तो हमने किसी बदलाव की उम्मीद रखी थी, जैसे कि आपकी आवाम ने, जिसने आपको चुना. हम खुद एक अमन पसंद पड़ोस चाहते हैं. सीमा पर शांति, दोनों देशों के लोगों में प्यार और आपसी व्यापार से एक दूसरे का विकास. क्या ये वो सपना है जो कभी पूरा नहीं हो सकता? ज़रा उस राह को छोड़िए जिस पर आप पिछले 67 सालों से चल रहे हैं. रास्ते बदलने से मंजिल भी बदल जाती है. क्या पता इस बार बदलाव अमन और चैन की राह दिखा दे.

उसी राह पर चलने को तैयार,
आपका पड़ोसी.

6 Sept 2014

शिक्षक बनेंगे आप?

साभार - पीएमओ इंडिया
5 सितंबर. भारत में आज के दिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है. हर साल मैंने अपने छात्र जीवन में इस दिन को मनाया है. लेकिन इस बार का शिक्षक दिवस वाकई में अलग था. शायद देश के इतिहास में पहली बार कोई प्रधानमंत्री शिक्षक दिवस के मौके पर इस तरीके से बच्चों से सीधा संवाद कर रहा था. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के इस कार्यक्रम की काफी आलोचना भी की गई. ये कहकर कि बच्चों से सीधा संवाद ज़बरदस्ती आयोजित कराया जा रहा है. लेकिन फिर भी कार्यक्रम होना था और हुआ भी. मोदी ने अपनी बात भी कही और बच्चों की भी सुनी. छात्रों के सवालों के जवाब भी दिए और वो भी अपने तरीके से. लेकिन सवाल ये है कि मोदी अपनी इस पाठशाला से कुछ सीख दे पाए या ये सिर्फ एक खानापूर्ति करने वाला कार्यक्रम था. 

नरेंद्र मोदी अपने विजन की बात हर जगह कहते हैं. कई मौकों पर वो अपने विजन को पेश भी करते हैं. मोदी ने इस कार्यक्रम में भी अपनी बात कही. उन्होंने इस बात पर सवाल उठाया कि क्यों भारत में अच्छे शिक्षकों का अभाव हो रहा है. मोदी ने तो यहां तक कहा कि भारत को पूरी दुनिया में अच्छे शिक्षकों को तैयार करके एक्सपोर्ट करना चाहिए. सवाल वाजिब है. विश्व की दूसरी बड़ी जनसंख्या वाले देश में अच्छे शिक्षकों की इतनी कमी है. हमारी उच्च शिक्षा तो फिर भी बेहतर है लेकिन प्राथमिक शिक्षा में हमारी हालत वास्तव में बुरी है. मोदी ने अपने ही वक्तव्य में ये बात कही कि जब कोई डॉक्टर या इंजिनियर नहीं बन पाता है तो टीचर बन जाता है, ड्राइवर बन जाता है, क्लर्क बन जाता है. ये तुलना सोच कर नहीं की गई होगी, लेकिन ये सच को बयां करने के लिए काफी है. हम शिक्षक बनना नहीं चाहते, बस बन जाते हैं.

साभार - पीएमओ इंडिया
इसमें कोई शक नहीं है कि मोदी के इस कार्यक्रम ने शिक्षक दिवस को एक नई ऊंचाई दी है. खबरों की दुनिया में जिस दिन को केवल एक इवेंट के रूप में पेश किया जाता था वहीं आज मोदी ने पूरा मीडिया स्पेस शिक्षक दिवस को दिलवा दिया. अच्छी बात ये भी है छात्रों को अपने सवाल पूछने का मौका दिया गया. शायद ये सवाल उतने कड़वे और तीखे नहीं थे लेकिन ये एकतरफा संवाद से तो काफी बेहतर है. 15 अगस्त के बाद लगातार दूसरी बार मोदी इस तरीके से लोगों से मुखातिब हुए और दोनों ही मौकों पर उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में बालिका शिक्षा, बच्चियों के लिए स्कूलों में शौचालय जैसे विषयों पर बात की. आज भी उन्होंने बच्चों को सफाई का संदेश दिया. इस तरीके से नहीं लेकिन इस तरीके की बातें कई मंचो से कई बार की जा चुकीं हैं. अब सवाल ये है कि क्या इस व्यवस्था में बदलाव के लिए कोई ठोस कार्ययोजना बनेगी? 

एक बार फिर मैं इस सवाल पर आता हूं कि हमारे देश में अच्छे शिक्षकों की इतनी कमी क्यों है? क्यों अच्छी खासी पढाई कर चुके बच्चे शिक्षक नहीं बनना चाहते? इस सवाल का जवाब इतना कठिन भी नहीं है. हमारे देश में शिक्षा ज्ञानार्जन से ज्यादा इस बात को ध्यान में रखकर की जाती है कि इससे हमें कौन सी नौकरी मिलेगी. जब शिक्षा का उद्देश्य अच्छा रोजगार है तो ये बात साफ है कि कोई भी छात्र उसी ओर सोचेगा. देश में जिस तेजी से विदेशी कंपनियों का प्रवेश हुआ है, इनमें नौकरी की संभावनाएं बढ़ी हैं, बड़े-बड़े और आकर्षक पैकेज मिल रहे हैं वहां कौन बेहद ही सामान्य वेतनमान पर शिक्षक बनना चाहेगा? जब देश में बड़े बड़े वेतमान खुल रहे हों वहां कौन संविदा शिक्षक बनना चाहेगा?

मोदी जी आपने बात तो सही उठाई है लेकिन आप ये भी तो जानते होंगे कि प्राथमिक शिक्षा के लिए अब हमारी राज्य सरकारें शिक्षक नहीं शिक्षाकर्मी खोज रहीं हैं. जब एक पद को आप वेतनभोगी कर्मचारी में बदल देंगे तो आपको कर्मचारी ही मिलेंगे. ये आएंगे, उपस्थिति लगाएंगे, पुस्तकों के पन्ने पलटेंगे और फिर चले जाएंगे. अब इन्हीं से बनवा लीजिए आप कल का भविष्य. प्राइवेट स्कूलों की स्थिति भी कुछ अच्छी नहीं है. गली-गली खुल रहे स्कूल कैसे अच्छी खासी तनख्वाह पर शिक्षक लाएंगे? तो फिर सामान्य शिक्षकों से आप अपनी अगली पीढ़ी को तैयार कराने का ख्वाब कैसे देख सकते हैं. 

साभार - पीएमओ इंडिया
स्कूल का शिक्षक केवल शिक्षक नहीं होता है साहब. वो एक जनगणना का कर्मचारी भी होता है. बच्चों को गिनती सिखाने वाला ये शिक्षक हर दस साल में देश के लोगों की गिनती करता है. फिर चुनावों के समय लोकतंत्र के महायज्ञ में इनकी आहूति तो बनती ही है. हम कैसे भूल सकते हैं कि जिस मिड-डे मील के लालच में कई बच्चे स्कूल की चौखट तक पहुंचते हैं वो मिड-डे मील बच्चों को मिले इसकी जिम्मेदारी भी शिक्षक की होती है. पोलियो का अभियान बेहद जरूरी है, कौन करेगा? शिक्षाकर्मी है ना! अब इस सुपरमैन से इतना सब कराकर भी आप उसे क्या देंगे? वर्ग में बांटकर पैसा! शिक्षाकर्मी वर्ग 1-2-3. शाबाश. जो अपने आज से जूझता है वो कल के नागरिक कैसे पैदा करेगा? इनकी समस्याओं पर तो आप नजर डालते नहीं हैं. (इस मुद्दे पर पहले कुछ लिखा था यहां देखा जा सकता है - आवाज़ इन्हें भी चाहिए ) 

तो, आखिरकार ये सब जानने के बाद कौन शिक्षक, माफ कीजिए शिक्षाकर्मी बनना चाहेगा जरा ये भी बता दें. पहले समाज में शिक्षकों का जो सम्मान होता था कम से कम वही बचा रहता तो शायद एक ठोस कारण निकल कर आता. लेकिन सच्चाई सबको पता है साहब. आज मीडिया में आपको मास्टर की संज्ञा दी गई. मास्टर बनकर तो मास्साब की तकलीफ समझिए. हमारी युवा शक्ति सबकुछ करने में सक्षम है. मौके तो दीजिए लेकिन सम्मान के साथ. वरना तो हर एक से ये पूछना पड़ेगा कि शिक्षक बनेंगे आप?

4 Sept 2014

क्या इसे भी फेस करेंगे आप?

देश के गृहमंत्री राजनाथ सिंह ने एक कार्यक्रम में कहा कि जब वो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने पुलिस वालों को नक्सलियों से निपटने के लिए खुली छूट दे रखी थी. बकौल राजनाथ, पुलिस वाले इस बात से परेशान थे कि उनकी कार्रवाई पर मानवाधिकार संगठन और आयोग दिक्कत पैदा करते हैं. राजनाथ ने कहा कि उन्होंने पुलिसवालों को आश्वस्त किया कि वो अपना काम करें, इन ह्यूमन राइट्स वालों को वो फेस करेंगे. इस बयान के बाद ये आशंका उपज रही है कि राजनाथ कहीं सरकार के कदमों की आहट तो नहीं दे रहे? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार अब नक्सलियों के खिलाफ सीधी लड़ाई के लिए तैयार हो रही है? पुलिस या सुरक्षा बलों को पूरी छूट देकर "सफाया" करने की योजना तो नहीं है?

प्यार और जंग में सबकुछ जायज़ है. इस लाइन को कई बार सुना है पर क्या ये लाइन नक्सलवाद के खिलाफ लड़ाई में भी सटीक उतरती है? नक्सलवाद की तुलना आतंकवाद से की जा सकती है या नहीं अभी तक हम इस बहस के अंत में भी नहीं पहुंचे हैं. नक्सलवाद से ज्यादा नक्सली हिंसा का खात्मा जरूरी है. लेकिन सुरक्षाबलों को इस लड़ाई में पूरी छूट देकर हम किसका सफाया करने जा रहे हैं? सीमापार से होने वाले आतंकवाद पर ये साफ है कि दुश्मन विदेशी है, लेकिन नक्सली समस्या इससे उलट है. गांवो में, जंगलों में रहने वाले भोले-भाले आदिवासियों को नक्सली करार देकर मारना सबसे ज्यादा आसान है साहब. फिर क्या राजनाथ सिंह उस परिवार के सवालों को भी फेस करने को तैयार होंगे?

देश में एक अकेली औरत पिछले 13 सालों से सुरक्षाबलों को मिली खुली छूट के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करा रही है. सरकारी जेल में पुलिसिया ज्यादती का शिकार होने वाली सोनी सोरी को देश की सर्वोच्च अदालत बरी कर देती है. लेकिन क्या इरोम शर्मिला के ये 13 साल हम लौटा सकते हैं? क्या सोनी सोरी को वो सबकुछ वापस दिया जा सकता है जो उसने खोया है? और हम सीधी लड़ाई में उतरने को तैयार हो रहे हैं. किससे लड़ना चाहते हैं हम, हमारे ही देश के उन लोगों से जो या तो मुख्यधारा से भटक गए हैं या जिन्हें मुख्यधारा से ढकेला गया है. 

मानिए या मत मानिए पर एक सच ये भी है कि जहां भी इस देश में नक्सली हैं वहां के जंगल बाकी इलाकों से ज्यादा सुरक्षित हैं. नक्सल इलाकों में संस्कृति किस तरीके बची हुई है उस बारे में स्व. प्रभाष जोशी जी की कही हुई बात मुझे आज तक सटीक लगती है. गोली किसी को पूछ कर नहीं लगती. फिर नक्सली इलाके सीमा से ज्यादा दुर्गम हैं क्योंकि वहां कोई लकीर नहीं है जो आपमें और दुश्मन में अंतर बताए. 

मैं कभी नहीं कह रहा कि नक्सलवाद को उपजने दिया जाए या नक्सलियों को माफ किया जाए. लेकिन मेरा सवाल सिर्फ इतना है कि क्या हम अपनी ही जमीन के भीतर सीधी लड़ाई के लिए तैयार हैं. जब रास्ता बंदूक से तलाशा जाता है तो परिणाम में खून जरूर मिलता है. इस देश ने अपने दो प्रधानमंत्री सिर्फ अंदरूनी लड़ाइयों की वजह से खोए हैं. अगर हम बंदूक का रास्ता चुन रहे हैं तो इसका मतलब साफ है कि हम बाकी सारे दरवाजों को बंद कर रहे हैं. 

राजनाथ जी, एक गृहमंत्री के तौर पर आप पुलिसिया व्यवस्था के मुखिया हैं. उनको आ रही दिक्कतों को फेस करना आपकी जिम्मेदारी भी है. लेकिन क्या फिर आप उन परिवारों को फेस करने के लिए तैयार हैं जो जनसंहार में मारे जाएंगे. मैंने जो कुछ लिखा है वो इसलिए नहीं कि ये सबकुछ नक्सलियों के खिलाफ है. बल्कि इसलिए क्योंकि ये मानवाधिकार के खिलाफ है. जिस देश में एक अपराधी के लिए भी अधिकार दिए गए हों वहां मानवाधिकार को किनारे पर करने की बात कैसे सोची जा सकती है? 

उम्मीद करता हूं कि आशंका के काले बादल छटेंगे और इस मुद्दे पर सरकार का रूख जल्द ही साफ होगा. दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र अपनी गरिमा और गौरव को बनाए रखेगा यही उम्मीद है. समस्या का हल हो जरूरी है पर उसके हल से और समस्याएं पैदा हों ये ध्यान में रखा जाए. बाकी गोली, बंदूक और ताकत सब आपका ही तो है. 

3 Sept 2014

क्या ये एक नई शुरूआत है?

कॉमनवेल्थ गेम्स के बाद से लगातार मैं ये सोच रहा था कि भारत में क्रिकेट को छोड़कर बाकी खेलों का क्या भविष्य है? क्या बाकी खेल आयोजनों के अवसर पर ही उन्हें याद करके भुला दिए जाने का सिलसिला बरकरार रहेगा, या इस स्थिति में कुछ बदलाव भी होगा. किसी भी परिस्थिति में एकदम से बदलाव की उम्मीद करना बेमानी बात है. लेकिन पिछले कुछ दिनों को ध्यान में रखें तो ये तो जरूर लग रहा है कि भारत अब खेलों के लिए पहले से ज्यादा जिम्मेदार और तैयार हो रहा है. 


कॉमनवेल्थ खेलों की खबरों को टीवी पर ज्यादा तवज्जो नहीं दी गई, लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि ये खेल सफल नहीं रहे या भारत में लोगों को इससे कोई सरोकार नहीं रहा. शायद अब भी टीवी चैनल या समाचार के माध्यम सोशल मीडिया की ताकत को समझने में गलती कर रहे हैं. ट्वीटर पर ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स लगातार ट्रैंड करते रहा. भारत ने जिस दिन भी पदक जीते हैं उसे लेकर कई ट्वीट और फेसबुक पोस्ट की गईं हैं. टीवी चैनल शायद इन खेलों में ग्लैमर नहीं ढूंढ पा रहे हैं लेकिन आज के भारत का युवा अपने हाथ में रखे मोबाइल से केवल फोन नहीं करता है. याद कीजिए सुशील कुमार के फाइनल के खेल को, सुशील क्रिकेट से इतर एक खेल सितारा बन चुके हैं इसमें किसी को शक नहीं होना चाहिए. 

कॉमनवेल्थ खेलों के बाद से एक बड़ा बदलाव जो मैंने महसूस किया है वो ये है कि अब हम खेलों और खिलाड़ियों के नाम लेकर बात करते हैं. नए भारत की नई पीढ़ी अब अपने क्रिकेट टीम के बजाए अपने देश की टीम से उम्मीद रखती है. ये बदलाव व्यापक नहीं है तो शायद आपको नजर ना भी आए लेकिन सच्चाई ये भी है कि बदलाव तो आया है. वरना #GoIndia जो कि कॉमनवेल्थ गेम्स में भारत का आधिकारिक हैश टैग था वो 5वें स्थान से उपर नहीं आ पाता. लेकिन ये हुआ है मतलब कोई ना कोई वर्ग जरूर था जो लगातार इस खेल पर नजर रख रहा था.

फुटबॉल, एक ऐसा खेल जिसमें हम आज तक वर्ल्ड कप नहीं खेल पाए. भारत में इस खेल की तेजी से बढ़ती लोकप्रियता पर किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए. फीफा वर्ल्ड कप में टीआरपी के आंकड़े बताते हैं कि कैसे देर रात हुए मुकाबलों को भी भारत में बड़े स्तर पर देखा गया. न्यूज़ चैनलों ने तो बकायदा फुटबाल वर्ल्ड कप पर विशेष कार्यक्रम बनाए. और अब भारत में ISL (इंडियन सुपर लीग) की शुरूआत होने जा रही है. फुटब़ल लीग को इस रूप में पेश करना साफ तौर पर इसके बढ़ते प्रभाव को दिखाता है. ISL में खेल के साथ ही ग्लैमर का तड़का भी मिलेगा क्योंकि इस लीग की कई टीमों का मालिकाना अभिनेताओं और सितारा खिलाड़ियों के पास है. 

इस कड़ी में एक नाम प्रो कबड्डी लीग का भी है. स्टार को इस बात का पूरा-पूरा श्रेय जाता है कि कैसे निचले स्तर पर खेले जाने वाले इस खेल को इन्होंने एक चमकते दमकते खेल में बदल दिया. प्रो कबड्डी लीग की शुरूआत से पहले इसकी सफलता को लेकर तरह-तरह के कयास लगाए जा रहे थे लेकिन लीग के खत्म होने के बाद न्यूज चैनलों में इसको मिली तवज्जो इसकी सफलता को बताने के लिए काफी. आप ये कह सकते हैं कि अभिषेक बच्चन के मालिकाने वाली टीम का जीतना इस बात का आधार था, लेकिन आईपीएल में जब ये जायज है तो कबड्डी में क्यों नहीं? 

देश के राष्ट्रीय खेल हॉकी को इस पूरी कड़ी में अपना नाम जुड़वाने के लिए काफी मेहनत करनी होगी. दरअसल खेलों की लोकप्रियता भी उनको मिली सफलता पर निर्भर करती है. सुशील, विजेंदर, अभिनव बिंद्रा और वो सारे गैर क्रिकेट नामों ने अपने प्रदर्शन से अपना नाम लोगों की जुबान पर लाया है. ये देश स्वागत करने को तैयार है आप परिणाम तो दीजिए. याद करिए कॉमनवेल्थ में भारत-पाकिस्तान के हॉकी मुकाबले को, जिसमें गोल करने के बाद सैल्यूट के पोज में दौड़ते शिवेंद्र सिंह किसे याद नहीं. क्रिकेट की लोकप्रियता इस देश में तभी बढ़ी है जब हॉकी में हम गिरने शुरू हुए. लेकिन अब किसी और खेल को गिराकर नहीं बल्कि सभी को खुद होकर आगे बढ़ना है.

निश्चित तौर पर ये बदलाव अचानक से नहीं आएगा. खिलाड़ियों, फेडरेशनों दोनों को इसके लिए काफी मेहनत करनी होगी. ग्लैमर का दूसरे खेलों से जुड़ना इस देश में एक नई और अच्छी शुरूआत है. खेल के मैदान पर लोगों को लाने के लिए जो खेल खेले जा रहे हैं वो जायज हैं. इसके कई पहलू भी हैं, पर सबसे अच्छी बात ये है कि अब हम और ज्यादा तैयार हो रहे हैं. इस नई शुरूआत से मुझे एक नई उम्मीद दिखती है... मुमकिन है वो कामयाब भी हो.