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5 Mar 2013

संदर्भ: द अटैक्स ऑफ 26/11

फिल्म द अटैक्स ऑफ 26/11 एक ऐसी कहानी पर आधारित है जिसे सब जानते हैं। 26/11 के हमले के उपर कई डाक्युमेंट्री बन चुकीं हैं। ऐसे में रामगोपाल वर्मा ने इस फिल्म को बनाकर क्या नया दिखाया है यही बात खास है। रामगोपाल वर्मा का ये कहना कि इस फिल्म में उन्होनें भावनाओं को दिखाने की कोशिश की है। ये बात फिल्म देखकर सही भी लगती है। द अटैक्स ऑफ 26/11 देखने के लिए दर्शक के मन में उस घटना को जानने की उत्सुकता होनी चाहिए। इस फिल्म में घटनाओं से बहुत ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गई है ना ही उन्हें काल्पनिक बनाया गया है।

इस फिल्म की कहानी के बारे में छुपा कर रखने लायक कोई बात नहीं है। ये एक ऐसी घटना है जिसके बारे में दर्शक को पहले से पता है। लेकिन दर्शक इस घटना के फिल्मांकन को देखने की सोच से फिल्म के प्रति सोचता है। राम गोपाल वर्मा ने इस विषय का चुनाव करके एक समझदारी भरा काम किया है। फिल्म की शुरूआत होती है मुंबई के असिस्टेंट कमिश्नर की भूमिका निभा रहे नाना पाटेकर के दृश्य से। नाना पाटेकर इस फिल्म की जान हैं। फिल्म में दिखाया गया है कि किस तरीके से अजमल कसाब और उसके साथी मुंबई आकर आतंक का खेल खेलते हैं। पूरी फिल्म कसाब और उसके आतंक के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म के दूसरे भाग में जरूर नाना पाटेकर प्रभावी होते हैं।

फिल्म की खासियत की बात करें तो इसका संगीत और कैमरे का प्रयोग प्रभावी लगता है। कुछ दृश्यों में तो दर्शक झकझोर जाता है कि आतंक का ऐसा स्वरूप भी हो सकता है। स्टेशन पर चावल के साथ दाल के बजाए खून का मिलना हो या अस्पताल के बुजुर्ग को गोली मारना। ये दृश्य लोंगो को चोट करते हैं और उनकी संवेदना पर भी असर करते हैं। कसाब के पकड़े जाने के बाद नाना पाटेकर और उसका संवाद ज़बरदस्त है। जब नाना पाटेकर उसे एक कुत्ता कहता है तो दर्शकों की तालियां आती हैं जो दरअसल उस गुस्से के कारण हैं जो आतंक के कारण उपजा है। लेकिन नाना पाटेकर का प्रभाव अंत तक बना रहता है।

फिल्म के अंत में कसाब की फांसी भी दिखाई गई है पर उससे ज्यादा ताली पोस्टमार्टम रुम के दृश्य में आती हैं जहां कसाब बेबस और हारा हुआ नज़र आता है। कुल मिलाकर फिल्म में घटना के साथ-साथ उस समय की भावनाओं को बेहतरीन तरीके से दिखाया गया है। घटना के प्रति उत्सुकता और भावनाओं के साथ उस हमले को फिर अनुभव करने के लिए ये फिल्म देखी जा सकती है।