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20 Mar 2012

ज़रा याद इन्हें भी कर लें...

23 मार्च 1931 वह दिन जब भारत गुलामी की ज़ंजीर में जकड़ा हुआ आजाद होने के लिए बेचैन था और इसी आज़ादी के लडाको को अंग्रेज़ सजा दे रहे थे । भगत सिंह , सुखदेव और राजगुरु ने इस देश के लिये अपना सर्वस्व  समर्पित कर दिया । पर क्या वाकयी हमको इनकी और इन जैसे अनेको की इस क़ुरबानी की कोई इज्ज़त भी है ? शायद नहीं वरना आज ये सिर्फ कुछ किताबो, सडको के नामो और चंद फिल्मो में सीमित ना रहकर हम सभी के विचारो में, व्यवहार में और जीवन में भी दिखलाई पड़ते ।

23 मार्च हर साल आता है और सरकारी कार्यक्रमों में सीमित रहकर हमारे लिये सिर्फ एक सामान्य दिन बन जाता है जब हम अपने सारे कम रोज़ की तरह करते है । आप सभी से मेरा सिर्फ एक सवाल है की अगर आपके घर में किसी को आने में कुछ देर हो जाए तो आपके मन में कैसे विचार आते है ? चिंता होती है ना ? तो फिर आपको तब चिंता क्यों नहीं हो रही जब जिन उद्देश्यों को लेकर आज़ादी की लड़ाई लड़ी गई थी उन उद्देश्यों को आने में इतनी देर हो गई के अब तो हम उनको भूलते ही जा रहे हैं ।

भगत सिंह ने कहा था की आज़ादी का मतलब सिर्फ यूनियन जैक ( ब्रिटिश ध्वज ) के स्थान पर तिरंगे से न होकर पूरी व्यवस्था में परिवर्तन से होना चाहिए । आज हमारे लिये विकास का तात्पर्य क्या है ? क्या ऊँची - ऊँची  इमारतें, चमचमाती सड़के, फास्ट - फ़ूड केन्द्रों की श्रृंखला विकास का पर्याय है ? या फिर देश के आखिरी कोने में बसे किसी गरीब के सर पर छत , किसी भूखे के पास रोटी, और किसी लाचार की आँखों में चमक विकास है ? ये सवाल मैं आप पर छोड़ता हूँ ।

ये मेरा पहला ब्लॉग पोस्ट है; भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को श्रधांजलि देने का विचार आया और ये पोस्ट किया हूँ । समस्या यही है के केवल विचार आते हैं आज शब्दों में बदलने का प्रयास किया और आप सभी से उम्मीद की क्रिकेट, फिल्म और वाहनों की इस भीड़ में ज़रा याद इन्हें भी कर लें...

आप सभी के कमेंट्स और सुझावों की प्रतीक्षा मैं...

उत्कर्ष चतुर्वेदी...