काफी दिनों के मोदी-मोदी
नमो-नमो की चर्चा के बीच ये ब्लाग लिख रहा हूं। भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) में
काफी कुछ बदल गया है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) या एनडीए के स्वरुप में
भी परिवर्तन हो गया है। लेकिन इसका असर क्या होगा ये बता पाना काफी मुश्किल है, जैसा कि
राजनीति में कहा भी जाता है कि क्या होगा ये जानना बेहद मुश्किल होता है। भाजपा
में मोदी के चुनाव प्रचार समिति के अध्यक्ष बनने के बाद आडवाणी हाशिए पर चले गए
हैं ये बात साफ दिख रही है, खुद आडवाणी के इस्तीफे के कांड
ने इस बात को सामने ला दिया था। लेकिन सवाल ये है कि क्या इससे भाजपा को नुकसान
होगा या फायदा। इसका आंकलन हमें दो तरीके से करना चाहिए। पहला ये कि एक व्यक्ति के
पार्टी में आगे बढ़ने और किसी के पीछे जाने से क्या असर होगा। मोदी के भाजपा में
आगे आने से संगठनात्मक रुप से या पार्टी के वोटर पर इसका नकारात्मक असर होगा ऐसा
मुझे नहीं लगता। बल्कि मुझे तो लगता है कि इससे पार्टी को युवा वोटरों का और साथ
मिलेगा।
आडवाणी निश्चित रूप से
पार्टी का महत्वपूर्ण चेहरा रहे हैं पर वो मोदी से ज्यादा युवा वोटरों को अपनी तरफ
कर पाते ऐसा मुझे नहीं लगता। नए वोटर जो 90-92 में जन्में हैं मतलब हाल में ही वोटर
बने हैं वो न तो अयोध्या कांड और न ही राम मंदिर आंदोलन के बारे में ज्यादा जानते
हैं और न ही इसमें उनकी दिलचस्पी है। उनके लिए आडवाणी हमेशा उस चेहरे की तरह रहे
हैं जो पार्टी में नंबर दो पर आता है पर ताकत के तौर पर नहीं वरिष्ठता के तौर पर।
अटल बिहारी वाजपेयी हमेशा से नंबर एक पर रहे हैं। लेकिन
इस वोटर ने भाजपा में सबसे ज्यादा ताकत के साथ अगर किसी नेता को उभरते हुए देखा है
तो वो नरेंद्र मोदी ही हैं। आज जिस तरीके से मोदी अपने को युवाओं के बीच प्रस्तुत
करते हैं इससे वो युवाओं को खुद से जोड़ते हैं। मोदी का विरोध भी कई बार उनको बड़ा
बना देता है। बार बार अगर कुछ सुनाई दे तो निश्चित रूप से वो अपना प्रभाव छोड़ता
है और मोदी के साथ भी यही हो रहा है। हां ये जरूर है कि आडवाणी के जाने से शायद
पार्टी के पुराने वोटर पर कुछ असर पड़े लेकिन पुराना वोटर बहुत आसानी से बदलता
नहीं है और वैसे भी आडवाणी अभी भी पार्टी में बने हुए हैं।
अब अगर बात की जाए कि
मोदी का प्रभाव बढ़ने से एक सहयोगी पार्टी के रूप में भाजपा पर पड़ने वाले असर की।
तो ये मोदी के बढ़ते कद का असर है कि जदयू जैसे सहयोगी ने राजग से खुद को अलग कर
लिया है। मोदी की छवि की बात कर नीतीश ने अपनी पार्टी को गठबंधन से अलग कर लिया है
पर वो भाजपा को राजनैतिक रूप से अछूत मान लें ये नहीं कहा जा सकता है। जदयू ने
गठबंधन से अलग होते समय मोदी पर निशाना साधा पर भाजपा पर कोई तीखा प्रहार नहीं
किया जो एक अलग संकेत भी देता है। संभव ये भी है कि कांग्रेस को दूर रखने के नाम
पर कुछ शर्तों के साथ ये 2014 में भाजपा के साथ चुनाव के बाद गठबंधन कर लें। मोदी
के आगे आने से भाजपा को बड़े सहयोगी मिलना मुश्किल हो गया है। लेकिन अगर मोदी अपने
प्रभाव से ज्यादा सीटें हासिल कर लेते हैं तो फिर कुछ ऐसी पार्टीयां भी हैं जो
उनके साथ आ जाएं।
उत्तर भारत से बात शुरू
की जाए तो मुझे लगता है कि भाजपा अपने बचे सहयोगी शिरोमणी अकाली दल के साथ ही
मैदान में उतरेगी। कश्मीर उनके लिए बहुत मुश्किल है। हरियाणा में भी वो क्षेत्रीय
दल को साथ लेना चाहेंगे। उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जरूर वो अकेले मैदान में
उतरेंगे। मध्य भारत भाजपा और मोदी दोनों के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण होगा। ये
ही वो जगह होगी जहां ये सारे दांव और ताकत लगाना चाहेंगे। उत्तर प्रदेश में अगर
पार्टी ने चमत्कार कर दिया तब तो 33% मैदान पक्का। जीत ना भी सके तो अगर भाजपा
को काफी सीटें मिली तो मुलायम सीबीआई के डर से इनके समर्थन दे सकते हैं। यही हाल
बसपा का भी हो सकता है पर दोनों ही मामले चुनाव के बाद स्पष्ट होंगे। मध्यप्रदेश
और छत्तीसगढ़ अब भाजपा के गढ़ बन चुके हैं और इन दोनों राज्यों में कांग्रेस के
संगठन को देखकर नहीं लगता कि वो बाजी पलट सकते हैं। बिहार की स्थिती अब दिलचस्प
होगी। झारखंड में भाजपा को मेहनत की जरूरत है।
पूर्व भारत की बात की जाए
तो भाजपा को यहां जितना कुछ भी मिल जाए वो उनके लिए बोनस ही है। पार्टी पूर्वोत्तर
के आठ राज्यों में तो है ही नहीं पश्चिम बंगाल में भी स्थिति बहुत खराब है। लेकिन
यहां ममता बैनर्जी के मोदी के साथ आने की उम्मीदें हैं, हालांकि ममता की राजनीति
समझ पाना इतना भी आसान नहीं है। उड़ीसा में भी नवीन पटनायक वापस भाजपा से जुड़ें
ऐसी संभावना नहीं नजर आती। अब अगर पश्चिम भारत का रूख किया जाए तो यहां भाजपा और
नरेंद्र मोदी का गढ़ गुजरात है। गुजरात से प्रधानमंत्री की बात यहां भाजपा को और
फायदा पहुंचा सकती है। राजस्थान में भी मोदी को ताकत लगानी होगी, मोदी अगर अपनी
ताकत सबसे ज्यादा कहीं लगा सकते हैं तो वो हिंदी भाषी प्रदेशों में ही लगा सकते
हैं। राजस्थान में वसुंधरा राजे मोदी का सहारा होंगी। महाराष्ट्र में कांग्रेस को
शायद अपने घोटालों का नुकसान हो जिससे भाजपा और शिवसेना के गठबंधन को फायदा हो
सकता है लेकिन इसके बीच कहीं ये फायदा महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ले उड़े तो भी चिंता
की बात नहीं, मोदी के सद्भावना उपवास में आकर राज ठाकरे ने मोदी से दूरी की
आशंकाओं को दूर कर दिया है।
अब आता है दक्षिण भारत। भाजपा और मोदी
यहां केवल चमत्कार की उम्मीद कर सकते हैं। आंध्रप्रदेश में जनार्दन रेड्डी अगर साथ
आ जा आएं तो कुछ मामला बन सकता है पर चंद्रबाबू नायडू, तेलंगाना का मामला,
चिंरजीवी और पहले से मौजूद कांग्रेस के कारण यहां क्या खिचड़ी बनेगी ये कहा नहीं
जा सकता। कर्नाटक में भाजपा दक्षिण भारत की अपनी पहली सरकार गवां चुकी है और इतनी
जल्दी राज्य में वापसी करना संभव नहीं दिख रहा है। बात तमिलनाडू की करें तो जे
जयललिता अगर मोदी के साथ आ जाएं तो काफी हद तक फायदा होगा, वैसे करुणनिधि भी अपने
मंत्रियों को कांग्रेस शासन में जेल जाते हुए देखकर दुबारा उसके साथ मजबूती से
दिखाई नहीं देते हैं। तो यहां भाजपा इनसे फायदा उठा सकती है। केरल में भाजपा के
हाथ कुछ नहीं आने वाला। कुल मिलाकर मोदी की राह आसान नहीं है। भाजपा ने जदयू की
कीमत पर उनको आगे किया है तो इसका कुछ तो मतलब है। वैसे भी भाजपा के लिए शायद इससे
बेहतर अवसर ना आए, कांग्रेस ने इतने घोटालों से भाजपा को चुनावी मुद्दे यूं ही दे
दिए हैं।
तो बस अब अगले एक साल तक राजनैतिक
उठापटक देखिए और मजा लीजिए लोकतंत्र के ढेर सारे रंगो का। सारे दलों के रंग से
रजनीति सराबोर है और एक साल तक रंगो का मिलना बिछड़ना चलता रहेगा। हाथ बांधे तमाशा
मत देखिए, समझिए और समझा दीजिए की ये पब्लिक है ये सब जानती है।
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