दुर्ग में जे के लक्ष्मी
सीमेंट फैक्ट्री में आग लगने की खबर जब मिली तो उस वक्त मैं इसे एक दुर्घटना के
रूप में ही ले रहा था। लेकिन जैसे-जैसे वक्त बीतता गया ये बात स्पष्ट होती गयी के
ये केवल एक दुर्घटना नहीं है। इस आग को गांव वालों ने लगाया ये सुनकर हैरानी हुई,
कारण भी अगले दिन के अखबारों में स्पष्ट हो गया कि छत्तीसगढ़ के इतिहास में ये
किसी भी उद्योग के आग लगाने की पहली घटना थी। इससे पहले भी कई आंदोलन हुए हैं पर
उनमें से किसी की भी परिणिती इस तरह की नहीं हुई है।
समय के साथ इस खबर पर
प्रतिक्रियाएं भी आने लगीं। जिम्मेदारी तय की जाने लगी। मुख्यमंत्री ने पुलिस
अधिकारियों पर अपना गुस्सा दिखाया। फैक्ट्री के प्रबंधन नें मजदूरों के खिलाफ
शिकायत की, पुलिस ने भी पूरे क्षेत्र को छावनी में बदल लिया। कार्रवायी शुरू हई और
एक-एक करके आस-पास के गांव से मजदूरों को ढूंढ़ कर, पकड़ कर गिरफ्तारी शुरू हो
गयी। गांव के गांव से लोग भाग कर जाने लगे और पुलिस से बचते रहे।
लेकिन खबर केवल इतनी नहीं
है, ये हमारा स्वभाव होता है कि हम किसी घटना पर प्रतिक्रिया तो दे देते हैं पर घटना
के कारणों को समझना नहीं चाहते हैं। इस फैकट्री में आग जरूर मजदूरों ने लगाई हो पर
वास्तविकता में इस आग से सबसे ज्यादा झुलन भी उन्हे ही हुई है। फैक्ट्री में आग
लगने के बाद आरोपी बने यही मजदूर, फैक्ट्री जलने के बाद इन्ही का चूल्हा जलना बंद
हुआ। अब तो ये अपने ही गांव को छोड़कर भागने पर मजबूर हैं। वैसे ये हमेशा ही होता
आया है कि कारण कुछ भी हो भुगतता हमेशा से गरीब किसान या मजदूर ही है।
जे के लक्ष्मी सीमेंट
फैक्ट्री में लगी इस आग के पीछे के कारणों को समझना भी जरूरी है। शुरूआत से ही इस
मामले में गलती रही है, कंपनी ने अपने फायदे के लिए नियम को ताक पर रखा और
गांववालों से भी वादा खिलाफी की। कंपनी को फैक्ट्री बनाने के लिए जिस गांव
(सेमरिया) में जमीन आबंटित की गई वहां जमीन के दाम ज्यादा होने के कारण कंपनी ने
दूसरे गांव (मलपुरी) में जमीन ले ली। इसके बाद कंपनी ने मलपुरी गांव में जन सुनवाई
भी नहीं की जिससे न तो ग्रामीणों की आपत्ति का पता चला न ही उनके सुझावों का।
अब अगर बात करें इस हादसे
की तो एक बात तो स्पष्ट है कि ये मजदूर इतने हिंसक कभी नहीं हो सकते अगर इन्हे
बार-बार न सताया गया होता। फैक्ट्री लगी इनकी ज़मीन पर इस वादे के साथ कि परिवार
से एक को नौकरी मिलेगी, पर हुआ क्या? नौकरी तो दिखाई नहीं दी केवल आश्वासन सुनाई दिए।
सब्र की भी एक सीमा होती है, वो भी टूटी। नौकरी का वादा खोखला दिखाई देने लगा तो
गांव वालों ने फैक्ट्री के सामने धरना दिया। अब गांधी के देश में गांधीवाद का
रास्ता सफल कितना होता ये तो समझ नहीं आ रहा था। सब्र का बांध फिर टूटा और फिर जो
हुआ उसका परिणाम था छत्तीसगढ़ का पहला हिंसक आंदोलन।
खैर कुल मिलाकर बात ये लगती
है कि ये घटना एक त्वरित परिणाम नहीं है। एक कारण था जो ये सब घटा। अब वो कारण
भड़काना रहा हो या फिर भड़कना पर जो भी हो ये एक हाथ की ताली नहीं है साहब। दूसरा
हाथ शायद वो है जिससे सरकार अपना हाथ मिलाती है। बस मुझे तो एक बात समझ आ रही है कि
पेट की आग बढ़ेगी तो ऐसी आग भड़केगी।
यह आंदोलनों का आगाज है..अगर सरकार और उद्योगपतियों ने किसानों के हितों की अनदेखी की तो नक्सली इन गांवों में पंहुच कर ग्रामीणों को वश में कर लेंगे। तब सरकार को भयंकर चुनौती से निपटना कठिन हो जाएगा। यह समझ से परे है कि सरकार बनाता कौन है और वो काम किसके लिए करती है।
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