"तुम अभी भी गुलाम हो" ये शब्द मेरे कानों में डालने वाला कोई और नहीं इस स्वतंत्र भारत का एक पुलिस वाला था । चीन के रक्षा मंत्री के भारत दौरे पर उनका क़ुतुब मीनार जाने का कार्यक्रम भी शामिल था और उनके इस कार्यक्रम को सफल बनाने में जुटी थी दिल्ली पुलिस । 5 सितम्बर की सुबह जब मैं अपने संस्थान जाने के लिए निकला तो सड़क पर पुलिस की भीड़ देखकर सोचा के शायद कोई दुर्घटना हो गई है पर दूर - दूर तक सिर्फ पुलिस वालों को देखकर लगा के किसी बड़े मंत्री का आगमन हो रहा है । मेरा ये अनुमान सच भी हुआ जब ज्ञात हुआ के चीन के रक्षा मंत्री इस मार्ग से जाने वाले हैं ।
खैर अब बात करूँ उस घटना की जिसके कारण मैं यह लेख लिख रहा हूँ । चीन के रक्षा मंत्री की सुरक्षा में लगी दिल्ली पुलिस सुबह से ही रोड पर यातायात को सुगम ( और शायद आम जन के लिय दुर्गम ) बनाने में जुटी हुई थी । सड़क के दोनों ओर तैनात पुलिस वाले हर आने जाने वाले वाहनों को रोक रहे थे, पैदल चल रहे लोगों को भाग कर जाने को कहा जा रहा था और बेचारे ठेले और गुमटियों वालों की तो शामत ही आ गई थी । एकाएक मेरे सामने चल रहे एक छात्र को पुलिस वाले ने भागकर जाने को कहा , लड़का तेज़ चलकर जा ही रहा था के पुलिस वाला उसे भद्दी गलियां देते हुए मारने लगा । कुछ समझ नहीं आया के उसका कसूर क्या था।
इस बीच चीनी रक्षा मंत्री का काफिला वहां से गुज़र गया , एक मिनट के इस कार्यक्रम के लिए अनेक लोग परेशान हुए । उस लड़के को रोक कर उसका नाम पता नोट किया गया । जब मुझे लगा के ये गलत हो रहा है तो मैंने पुलिस वालों से बात करने की कोशिश की । प्रारंभ में मुझे भी डराया गया पर कुछ झूठ और कुछ सच बोल कर में उनसे बात करने में सफल रहा। पूरी बातचीत में उन्होंने मुझे सुरक्षा व्यवस्था की दुहाई देकर अपने कृत्य को सही ठहराने की कोशिश की । पर इस बीच एक पुलिस हवलदार ने धीरे से कहा की आप कहाँ फस रहे हो हम तो अभी भी गुलाम हैं । मैं ये सुनकर अचंभित रह गया के कैसे एक पुलिस वाला ये सब बोल सकता है । पर ये इस स्वतंत्र राष्ट्र की सच्चाई है जहाँ ये देश अभी भी चंद पूँजीपतियों के हाथों में है, जहाँ ये देश उन लोगों के हाथों में है जिनके लिए लोग कुछ भी नहीं हैं।
अब आप सोच रहे होंगे की इन सारी बातों को अब लिखने का क्या फायदा। पर चूँकि कुछ दिन पहले ही हमने चीन से हार की यादों को फिर से ताज़ा किया और उसी क्रम में मुझे ये वाकया याद आ गया। इसलिए भी आपसे साझा कर रहा हूँ ताकि आप खुद सोच सकें के हमारा देश आखिर कौन चला रहा है। हमेशा ऐसी घटनाओं का शिकार हम ही क्यों बनें? क्यों इस देश की पुलिस जो कि हमारी रक्षक है, हमारी कम और इन तथाकथित विशिष्ट जनों की ज्यादा रक्षक दिखाई पड़ती है। कई सवाल हैं जिनके जवाब कोई नहीं देता।
शायद उस पुलिस वाले ने सच ही कहा कि हम अभी भी गुलाम हैं। हम गुलाम हैं इन व्यवस्थाओं के जो हमको ही परेशान करती हैं। हम गुलाम हैं उन लोगों के जो किसी ना किसी तरह इस देश की कमान सम्हाले हैं। हम गुलाम हैं अपने उस वास्तव में उन लोगों के जो हम पर राज करते हैं और गलती से हम भी इन्हें राजा बनाते हैं।
सोचिए कि कैसे इस स्थिति को बदलना है। सोच लें तो कुछ करिएगा भी वरना आप भी उन लोगों में ना गिने जाएँ जो केवल सोच सकते हैं। चलिए इसी उम्मीद में अपने शब्दों को समाप्त करता हूँ कि अब किसी और देश के "विशिष्ट" लोगों के लिए हमको हटाया नहीं जायगा। महोदय ये हमारा रास्ता है आपको भी चलने देंगे पर खुद को दबाकर नहीं।
- उत्कर्ष चतुर्वेदी।
खैर अब बात करूँ उस घटना की जिसके कारण मैं यह लेख लिख रहा हूँ । चीन के रक्षा मंत्री की सुरक्षा में लगी दिल्ली पुलिस सुबह से ही रोड पर यातायात को सुगम ( और शायद आम जन के लिय दुर्गम ) बनाने में जुटी हुई थी । सड़क के दोनों ओर तैनात पुलिस वाले हर आने जाने वाले वाहनों को रोक रहे थे, पैदल चल रहे लोगों को भाग कर जाने को कहा जा रहा था और बेचारे ठेले और गुमटियों वालों की तो शामत ही आ गई थी । एकाएक मेरे सामने चल रहे एक छात्र को पुलिस वाले ने भागकर जाने को कहा , लड़का तेज़ चलकर जा ही रहा था के पुलिस वाला उसे भद्दी गलियां देते हुए मारने लगा । कुछ समझ नहीं आया के उसका कसूर क्या था।
इस बीच चीनी रक्षा मंत्री का काफिला वहां से गुज़र गया , एक मिनट के इस कार्यक्रम के लिए अनेक लोग परेशान हुए । उस लड़के को रोक कर उसका नाम पता नोट किया गया । जब मुझे लगा के ये गलत हो रहा है तो मैंने पुलिस वालों से बात करने की कोशिश की । प्रारंभ में मुझे भी डराया गया पर कुछ झूठ और कुछ सच बोल कर में उनसे बात करने में सफल रहा। पूरी बातचीत में उन्होंने मुझे सुरक्षा व्यवस्था की दुहाई देकर अपने कृत्य को सही ठहराने की कोशिश की । पर इस बीच एक पुलिस हवलदार ने धीरे से कहा की आप कहाँ फस रहे हो हम तो अभी भी गुलाम हैं । मैं ये सुनकर अचंभित रह गया के कैसे एक पुलिस वाला ये सब बोल सकता है । पर ये इस स्वतंत्र राष्ट्र की सच्चाई है जहाँ ये देश अभी भी चंद पूँजीपतियों के हाथों में है, जहाँ ये देश उन लोगों के हाथों में है जिनके लिए लोग कुछ भी नहीं हैं।
अब आप सोच रहे होंगे की इन सारी बातों को अब लिखने का क्या फायदा। पर चूँकि कुछ दिन पहले ही हमने चीन से हार की यादों को फिर से ताज़ा किया और उसी क्रम में मुझे ये वाकया याद आ गया। इसलिए भी आपसे साझा कर रहा हूँ ताकि आप खुद सोच सकें के हमारा देश आखिर कौन चला रहा है। हमेशा ऐसी घटनाओं का शिकार हम ही क्यों बनें? क्यों इस देश की पुलिस जो कि हमारी रक्षक है, हमारी कम और इन तथाकथित विशिष्ट जनों की ज्यादा रक्षक दिखाई पड़ती है। कई सवाल हैं जिनके जवाब कोई नहीं देता।
शायद उस पुलिस वाले ने सच ही कहा कि हम अभी भी गुलाम हैं। हम गुलाम हैं इन व्यवस्थाओं के जो हमको ही परेशान करती हैं। हम गुलाम हैं उन लोगों के जो किसी ना किसी तरह इस देश की कमान सम्हाले हैं। हम गुलाम हैं अपने उस वास्तव में उन लोगों के जो हम पर राज करते हैं और गलती से हम भी इन्हें राजा बनाते हैं।
सोचिए कि कैसे इस स्थिति को बदलना है। सोच लें तो कुछ करिएगा भी वरना आप भी उन लोगों में ना गिने जाएँ जो केवल सोच सकते हैं। चलिए इसी उम्मीद में अपने शब्दों को समाप्त करता हूँ कि अब किसी और देश के "विशिष्ट" लोगों के लिए हमको हटाया नहीं जायगा। महोदय ये हमारा रास्ता है आपको भी चलने देंगे पर खुद को दबाकर नहीं।
- उत्कर्ष चतुर्वेदी।
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