गुवाहाटी में जो कुछ भी हुआ वो एक शर्मनाक सच है आज का , हम चाहें जैसी भी बातें बना लें हम इस बात से नहीं मुकर सकते कि आज भी हम इस समाज में रहने वाली महिलाओं के लिए एक सुरक्षित वातावरण का निर्माण नहीं कर पाए हैं । मेरा इस बात को लिखने का ये उद्देश्य नहीं है कि मैं फिर से उस घटना के प्रति आप लोगों कि जिज्ञासा बढाकर आपको प्रेरित करूं कि आप इसके विडिओ देखें और फिर उस भीड़ का हिस्सा बने जो घटना को देखती है अपने मन में अपराधियों को कोसती है और फिर चैनल बदलकर बैठ जाती है ।
मैं तो सिर्फ एक प्रश्न करना चाहता हूँ कि हम या हमारी ही चुनी हुई इन सरकारों को ऐसे कितने और घटनाओं की आवश्यकता है जब वे इसने सबक लेकर प्रयास करें एक ऐसे वातावरण के निर्माण का जहाँ महिलाएं , बच्चे और बुज़ुर्ग सब निश्चिन्त होकर रह सकें । इस निश्चिंतता की प्रतीक्षा में और कितनी ही बेटिओं को इस तरह की घटना का सामना करना पड़ेगा ? कैसी व्यवस्था में रह रहें हैं हम ? जहाँ पुलिस को सूचित करने के स्थान पर लोग घटना के विडियो का निर्माण करते हैं । लोग तो भूल गए पर वो लड़की याद दिलाती रही के उनके घर में भी कोई बहन है, कोई माँ है, कोई पत्नी है । फिर भी उन पर कोई असर नहीं पढ़ा ।
बचपन में मेरी माँ मुझसे कहा करती थी कि बेटा उन रास्तों से मत जाना जहाँ लोग आते - जाते ना हों । पर यहाँ क्या हुआ वो लड़की तो बीच सड़क पर जहाँ लोगों की भरमार थी वहीँ निर्ममता का शिकार हुई । तो अब हम जाएँ तो जाएँ कहाँ से ? घटना राष्ट्रीय स्तर पर प्रकट हुई, लगा के अब कुछ अलग होगा और हुआ भी बिलकुल अलग , पहले तो उस लड़की का नाम सार्वजानिक कर दिया गया और फिर उसकी तस्वीरें भी । इस बात के दोषियों को क्या सजा मिली मात्र जाँच आयोग से अलग कर दिया गया। ऊपर से पुलिस का इस घटना पर बयान ऐसा के जैसे मीडिया ने एक मामूली सी घटना का राष्ट्रीयकरण कर दिया हो ।
यदि इस घटना पर श्री कृष्ण जी से पूछा जाता तो वे भी कह देते कि लाज तो मैं बचा लेता वो चीर हरण भी नहीं होता पर इस यू ट्यूब को कैसे रोकता जहाँ ये बार बार हो रहा है । उन वक्तव्यों को कैसे रोकूँ जो बार बार तीर के सामान चुभते हैं । आज इस पर सरकार क्या कर रही से ज्यादा चिंता राजनैतिक दलों के बयान की और यू ट्यूब पर देखी जानी वाली संख्या की है । हम ये अलाप रोज़ सुनते हैं, पर हम जो सुनना चाहते हैं वो ही नहीं सुन पाते कि दोषियों की गिरफ्तारी हुई, हम नहीं सुन पाते कि उन्हें सज़ा हुई और हम कभी नहीं सुन पाते के उन्होंने सज़ा पूरी भी की हो
खैर ये सिर्फ़ न्याय व्यवस्था का प्रश्न नहीं बल्कि हमारे समाज की व्यवस्था का भी है कि हम कब सीखेंगे के हमें सिर्फ अपने लिए नहीं बल्कि अपनों के लिए भी जीना सीखना होगा । अपनों से तात्पर्य तो आप समझ ही गए होंगे । देखिये कब वो दिन आता है जब किसी बच्चे को उसकी माँ इसलिए ना टोके कि वो किस तरह के रास्ते से होकर जा रहा है ।
इसी आशा और विश्वास के साथ सुझावों की प्रतीक्षा में ।
- उत्कर्ष चतुर्वेदी ।
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