साभार - huffingtonpost |
बिहार में बहार हो, नीतीशे कुमार हो! 2015 में ये लाइन बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान खूब सुनी थी, जिस जगह जाइए टीम पीके की ओर से तैयार ये गाना सुनाई देता था. तब शायद किसी ने नहीं सोचा था कि देश के सबसे अलग और प्रयोगधर्मी हो रहे इस चुनाव के करीब 20 महीने बाद ये शब्द तो जस के तय कायम होंगे लेकिन इस गाने में दिखने वाले नीतीश के अलावा सभी चेहरे बदल चुके होंगे. 2015 में बिहार विधानसभा में महागठबंधन ने भारतीय राजनीति में एक नए प्रयोग की शुरूआत की थी. दूसरे और तीसरे मोर्चे से अलग एक "महागठबंधन" की शुरूआत. देश में बेहद तेजी से बढ़ती बीजेपी को रोकने के लिए सभी विपक्षी दल एक हो गए थे. देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी कांग्रेस भी राज्य में तीसरे नंबर की सहयोगी बनने को तैयार हो गई थी. लेकिन करीब 20 महीने बाद बिहार में फिर से नीतीश कुमार होने जा रहे हैं लेकिन इस बार महागठबंधन से गांठ अलग है, बंधन मुक्त हैं, महान लोकतंत्र जिंदाबाद के नारे लग रहे हैं.
26/07/2017 की शाम बिहार के लोगों के लिए एक खास शाम में बदल गई. एक ऐसी शाम जब लोग टीवी के सामने से उठ नहीं रहे होंगे. बिहार में चुनावों के दौरन जब लोगों ने "लालटेन" की रोशनी में "हाथों" में "तीर" देखा था तो कभी सोचा नहीं होगा कि ये "तीर" सीधा "कमल" के निशाने पर जा लगेगा. भारतीय राजनीति के वर्तमान दौर में नीतीश कुमार को शुचिता की राजनीति का सबसे मुफीद चेहरा माना जाता है. एक ऐसा व्यक्ति जिसके लिए विकास और ईमानदारी ज्यादा जरूरी है ना कि कुर्सी. जिस चेहरे पर कोई व्यक्तिगत आरोप नहीं लग सकते. लेकिन 26 जुलाई की शाम बिहार की राजनीति को एक साथ ज्वार भाटा देखने को मिला, काफी पानी चढ़ा भी और उथला भी.
साभार - @laluprasadrjd (Twitter) |
बिहार के जदयू-राजद-कांग्रेस के इस गठबंधन के बनने की शुरूआत से ही इस पर सवाल उठ रहे थे कि इस बेमेल का मेल सिर्फ भाजपा को रोकने के लिए हुआ है या ये देश में नई राजनीति का आगाज है. लेकिन ये आगाज किसी अंजाम पर पहुंचने से पहले ही उस रूप पर पहुंच गया है जहां इसे परवान चढ़ाने वाले भी खुद को जला और ठगा महसूस कर रहे होंगे. खुद बिहार की सबसे बड़ी पार्टी के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव कहने को मजबूर हो गए कि हमने नीतीश को मुख्यमंत्री बनाया ना कि वो बने. ये अहसास दिलाते रहे कि वो सबसे बड़े दल और दिल के नेता हैं. लेकिन नीतीश ने भी दिखाया कि वो उसी रूप में राजनीति के दांव चलेंगे जिसके लिए वो जाने जाते हैं. इस पूरे घटनाक्रम में देश में सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस एक लाचार दर्शक से ज्यादा कुछ नजर नहीं आई.
इस पूरे राजनैतिक घटनाक्रम को बिहार से बाहर होकर देखें तो पता चलता है कि बिहार में नंबर 2 बनने जा रही बीजेपी ने अपने इस मास्टर स्ट्रोक से देश की किसी भी पार्टी को नंबर 2 बनने लायक नहीं छोड़ा. 2017 के सबसे बड़े राजनैतिक ड्रामे का असर 2019 में साफ तौर पर पड़ेगा. जहां 26 जुलाई की दोपहर तक पीएम नरेंद्र मोदी के सामने 2019 की सबसे बड़ी चुनौती दिखाई दे रहे नीतीश कुमार उनके सबसे बड़े साथी बनकर खड़े होंगे. वहीं नीतीश के कंधे पर बंदूक रखकर राजनैतिक दांव की गोली चलाने वाले सभी विपक्षी दल एक अदद कंधे की तलाश में होंगे. नीतीश के बीजेपी से मिलने के बाद 2019 में विपक्ष का कोई भी ऐसा चेहरा दिखाई नहीं देता जो कि बीजेपी से टक्कर लेने लायक लगे. एक ओर जहां लालू प्रसाद यादव चुनाव लड़ने में सक्षम नहीं हैं तो वहीं मुलायम सिंह यादव रिटायर होते दिख रहे हैं. अखिलेश यादव उत्तर प्रदेश से बाहर नहीं निकलना चाहते तो वहीं ममता की स्वीकार्यता बंगाल के बाहर नही है. मायावती का वोट बैंक बचा नहीं और राहुल के नाम पर वोट बैंक जुड़ने वाला नहीं. ऐसे में धुर विरोधियों को एक सूत्र में पिरोने वाले धागे को ही बीजेपी ने अपना माणिक बना कर बिहार के सिंहासन में सुशोभित कर दिया है.
साभार - @NitishKumar (Twitter) |
लेकिन इस एक शाम में काफी कुछ बदला भी है. नीतीश कुमार अब देश के सबसे बड़े अवसरवादी दिखाई दे रहे हैं. जीतन राम मांझी को हटाकर दुबारा मुख्यमंत्री बनना और महागठबंधन तोड़कर बीजेपी के साथ सरकार बनाना इस तरीके से दिख रहा है जैसे नीतीश को कुर्सी से बेहद लगाव है. लालू प्रसाद यादव देश के सबसे बड़े भ्रष्टाचारी दिखाई पड़ रहे हैं और उनके साथ खड़ा हर शख्स बेईमान होने का सर्टिफिकेट पाने को तैयार है. एक शाम में साफ सुथरे नीतीश हत्यारे हो गए तो वहीं बीजेपी का साथ राम राज्य की एंट्री का टिकट बन गया है.
हालांकि कुछ चीजें देखी जाएं तो लगता है कि सब अचानक नहीं है. ये सब उसी शाम को क्यों होता है जब लालू प्रसाद यादव को पटना छोड़कर रांची जाना होता है? क्या इसलिए ताकि वो इस झटके को मैनेज करने का समय ना पा सकें? आखिर नीतीश कुमार तेजस्वी को निशाना बनाना चाहते हैं तो क्यों नहीं वो उन पर एक्शन लेकर इंतजार करते कि लालू ही सरकार से हाथ खीच लें और जनता को सब देखने समझने का मौका मिले? आखिर क्यों नीतीश और लालू जनता को वो सोचने को मजबूर कर रहे हैं जो वो सोचना और जानना नहीं चाहती थी? आखिर कैसे नीतीश कुमार को निशाने पर लेने वाली भाजपा उन्हें अपने बीच पाकर खुश नजर आने लगती है...
सवाल और विश्लेषण चलते रहेंगे. राजनीति यही है जो कभी रूकती और थमती नहीं. जिस दिन सब टूटता सा लगता है वो खामोशी से निकल जाता है. जब हर जगह खामोशी होती है तभी सबकुछ टूट जाता है. सरकार अब भी सरकार हैं, कल तक साथ खड़ा सहयोगी अब किनारे लगा दिया गया है, किनारे का बिछड़ा हुआ पड़ोसी अब फिर साथी हो गया है. जो नहीं मिला वो एक अदद सवाल का जवाब है कि - जिन आरोपों के चलते एक शाम में सब बदल गया उसका क्या होगा? क्या कोई जेल जाएगा या कुर्सी पर आने के बाद "जनता न्याय करेगी" का जुमला चल जाएगा.
बहरहाल, फिर से एक बार है... नीतीशे कुमार है...