"वज़ीर" इस फिल्म के प्रोमो आने के बाद से मैं इस फिल्म को देखने की सोच रहा था. अक्सर फिल्म देखना मेरा पसंदीदा शगल है. लेकिन ऐसा बहुत कम होता है कि मैं फिल्म देखने के बाद उस पर लिखूं. ऐसा मैं तब ही करता हूं जबकि वो फिल्म मुझे ऐसा करने पर मजबूर कर देती है. मेरी नजर में वज़ीर एक ऐसी ही फिल्म है. सबसे पहले तो मैं इस फिल्म की लंबाई कम रखने के लिए निर्देशक को दाद देता हूं. बेहद कम समय में कहानी कहना भी एक कला है. इतनी सशक्त फिल्म देखने का अपना ही मजा है. अगर फिल्म के दौरान आपने 3-4 फोन कॉल ले ली तो समझिए आप कहानी में काफी कुछ मिस करने वाले हैं. और ये इस फिल्म की एक बड़ी खूबी है.
वज़ीर, जैसा कि फिल्म का नाम है ये अपने नाम के अनुरूप शतरंज के मोहरों के इर्द गिर्द घूमती है. और इसका मुख्य नायक भी वजीर ही है. फिल्म की शुरूआत ही एक गाने से होती है. ये असामान्य तो नहीं लेकिन अचरज भरा जरूर है. लेकिन एक ही गाने में पूरे भावों को स्थापित कर फिल्म की तेजी से आगे बढ़ाया गया है. शुरूआती घटनाक्रमों में तेजी है और इतनी कि आपको ये लगातार ये बांधे रखेगी. हादसों से ही फिल्म की कड़ी आगे बढ़ती है. अमिताभ बच्चन का फरहान अख्तर से पहली बार मुलाकात का सीन बता देता है कि कितनी शिद्दत से अमिताभ को फरहान की जरूरत है. फिर इस फिल्म में आती है वो बात जिसके लिए ही फिल्म बनी है. एक मर्डर जिसे दुर्घटना बता दिया गया है.
वजीर एक ऐसी फिल्म है जिसमें आप आंकलन तो लगा सकते हैं लेकिन फिल्म के राज को पकड़ लें ये इतना आसान भी नहीं है. मैंं इस फिल्म को देखकर अपनी उस बात पर और कायम होता जा रहा हूं कि जैसे-जैसे अमिताभ बच्चन की उम्र बढ़ रही है, वैसे-वैसे वो अपनी एक्टिंग से मुझे अपना कायल बनाते जा रहे हैं. अमिताभ इस फिल्म की जान हैं. वो सबसे मजबूत किरदार भी है. वो एक ऐसा किरदार निभा रहे हैं जिनसे आप काफी कुछ सीख सकते हैं. फरहान ने भी जबरदस्त काम किया है और अदिति राव हैदरी के अलावा शायद उनके किरदार को कोई और नहीं कर सकता था. मानव कौल ने अपना काम पूरी सौ फीसदी ईमानदारी से किया है. हालांकि जॉन अब्राहम इस फिल्म में ना होते तो शायद कोई फर्क नहीं पड़ता. लेकिन कुछ मिनटों के लिए आने वाले नील नितीन मुकेश को आप भूल नहीं सकते हैं.
फिल्म जैसे-जैसे दूसरे हाफ में जाती है हम फिल्म के अंत का अंदाजा लगाने लग जाते हैं. एक जबरदस्त विलेन, एक मजबूत हीरो, एक बेहद संकल्पित किरदार, एक संभालने वाली अदाकारा और परेशान करने वाला छुपा छुपा सा लेकिन बेहद ताकतवर दुश्मन. एक ही हालात के मारे दो लोग जब दोस्त बन जाते हैं तो कोई नहीं जान सकता कि ये एक मतलबी दोस्ती हो सकती है. सब अच्छा हो रहा होता है. विलेन भी यूं लगने लगता है कि पकड़ा जाएगा. लेकिन ये आम हिंदी फिल्म तो है नहीं. तो एकदम से अमिताभ बच्चन का चले जाना एक टीस छोड़ देता है. मुंह से अफसोस के शब्द निकल जाते हैं और एक बेबसी छा जाती है. फिल्म फिर तेज होती है और एक ऐसे सच के पास पहुंचती है जो करीब-करीब सबको पता होता है. लेकिन यहीं खत्म होती सी दिखाई देती फिल्म फिर एक सबसे बड़े खुलासे को तैयार होती है.
शतरंज का प्यादा कैसे वजीर बन जाता है ये फिल्म के अंत में समझ आता है. जो शिद्दत से खोजा जा रहा है वो है ही नहीं और जो है वो क्यों है लोगों के मन में ये सवाल आते हैं. एक कैमरे के सामने अभिनय करते अमिताभ इतने सजीव लगते हैं कि वो वापस आने की बात भी सुन लेंगे. जो सच सामने आता है वो ताज्जुब तो देता है ही साथ ही एक कड़वा सच भी सामने लाता है. कुल मिलाकर एक अच्छी कहानी, बेहद कसी हुई फिल्म देखने के लिए वजीर वास्तव में एक बेहतरीन विकल्प है. ये कई बार तो नहीं लेकिन खुले दिमाग के साथ एक बार जरूर देखी जानी चाहिए.
वास्तव में वजीर घोर मनोरंजक फिल्म होते हुए भी कुछ बता जाती है. बताती है कि कैसे किसी बेबस को असली इंसाफ पाने के लिए तराजू के एक पलड़े में अपनी जिंदगी रखनी पड़ती है. बताती है कि कैसे मकसद को पाने के लिए दोस्ती में भी मतलबी होना पड़ता है. बताती है कि कैसे जिंदगी में कुर्बानी ही कुछ बड़े फैसलों का कारण बनते हैं. कुछ दृशयों के घोर काल्पनिक होने के बावजूद मैं उस पर उस वक्त सवाल इसलिए नहीं उठा पाता हूं क्योंकि वो उस वक्त जरूरी लगते हैं. कश्मीर की जिस बात को पेश किया गया है उसमें सबकुछ गलत नहीं लगता और हम उसे इसलिए स्वीकार लेते हैं क्योंकि ये हो सकता है.
लेकिन फिर भी, मतलब निकालने से इतर खुद के मतलब के लिए भी वजीर को देखा जाना चाहिए. फिल्म अच्छी है साथ ही गाने भी ठीक हैं. खासकर शुरूआत और अंत. दोनों ही गानों से होती है और ऐसे गानों से जिसे आप और मैं गुनगुनाते हुए सिनेमा हॉल के बाहर निकलते हैं. तो इस प्यादे की ओर से वजीर को तारीफ की शह और फ्लॉप होने के डर को मात.