देश में विकास के
नाम पर बनी एक आदमी की सरकार जब आई थी तो हर जगह सिर्फ एक बात सुनने को मिलती थी,
कि ये मोदी जी दस सालों के लिए आए हैं. लोग एक ऐसे प्रधानमंत्री को चाहते थे जो कि
निर्णय लेने में देरी ना करे. उनका प्रधानमंत्री चुप ना रहे. अहम मसलों पर अपनी बात
रखे. और सबसे बड़ी बात पूरे दमखम के साथ अपने फैसले ले. लेकिन इन सारी बातों के
बीच एक ऐसी भी बात थी जो बोली नहीं गई, शायद इसे बोलने की जरूरत भी नहीं थी. सबका
साथ और सबका विकास के नारे को लेकर इंडिया को शाइन कराना हर कोई चाहता था लेकिन
देशहित और उससे भी जरूरी लोकहित में. सरकार बनी और एक ऐसी संख्या के साथ बनी कि
संसद में इसका विरोध केवल औपचारिकता नजर आने लगा. लेकिन लोकतंत्र की सबसे बड़ी
ताकत जिसके हाथ में होती उसे आप नजरअंदाज नहीं कर सकते.
देश में इस वक्त एक
कानून को लेकर ऐसा बवाल मचा कि संसद से ज्यादा सड़क में सरकार का विरोध होने लगा.
हर मोर्चे पर मजबूत नजर आ रही सरकार अपने भूमिअधिग्रहण कानून को लेकर पीछे हटने को
तैयार हो गई. इसका कारण शायद चौतरफा विरोध रहा हो. प्रधानमंत्री समेत उनकी पार्टी
और सरकार के सारे साथियों ने इस कानून को देशहित और विकास के लिए जरूरी बताने के
चाहे जितने तर्क दिए हों लेकिन देश की सड़क पर उतरा किसान इससे सहमत नजर नहीं आया.
वो किसान जिसके लिए इसी देश के एक प्रधानमंत्री ने जय किसान का नारा बुलंद किया था
आज अपने नारे को बुलंद करने के लिए पैदल चलकर देश की राजधानी पहुंचा. इस किसान के
साथ कोई हो ना हो सबसे बड़ी ताकत उसकी खुद की थी. और उसके बाद उसके साथ था एक ऐसा
आदमी जो कि आज कि पीढ़ी के लिए किसी जादूगर से कम नहीं है. अन्ना हजारे ने इस देश
के युवा को और आज की पीढ़ी को ये विश्वास दिलाया कि हम एक हो जाएं तो लोकतंत्र में
रहकर सरकार को मालिक बनने से रोका जा सकता है.
एकता की दौड़ लगाते
हुए अमेरिका में हिट हो चुके प्रधानमंत्री का इस तरीके से विरोध होते देखना किसी
आश्चर्य से कम नहीं है. जिस सोशल मीडिया पर उनकी तारीफ चारों ओर दिखाई देती हो
वहां भूमिअधिग्रहण कानून पर उनके समर्थकों पर लोगों का आक्रामक हो जाना इस बात का
संकेत है कि साहब आप गलत करेंगे तो ये ना भूलें कि आपको 300 भी हमने दिए हैं और
किसी को 50 भी हमने ही. संख्या लोकतंत्र में महत्व रखती है लेकिन इसका मतलब कुछ भी
कर जाना नहीं होता. जिस तरीके से अध्यादेश के जरिए इस कानून को लाया गया और पूरी
सरकार इसकी लामबंदी में जुट गई वो इस बात को बताने के लिए काफी है कि ये कानून खास
तो है. लेकिन सबसे बड़ा सवाल ये है कि अगर ये कानून खास है तो किसके लिए. जिस
सरकार ने कानून बनाया वो कहती है कि ये कानून किसानो के लिए है. वो किसान कहता है
कि उसे ये कानून नहीं चाहिए. और इस देश का आम आदमी इस रस्साकशी को देख रहा है.
लेकिन एक वर्ग है जो चुप है. क्या ये कानून उसके लिए है?
अटकलों पर ना जाते
हुए मेरा सिर्फ ये कहना है कि क्या वाकई हमें इस वक्त पर ऐसे कानून की जरूरत है? देश के विकास के नाम पर
जिस तरीके से भूमि अधिग्रहण की तैयारी की जा रही है क्या वो वाकई लोकतंत्र में
उचित है? सबसे पहले तो मुझे अधिग्रहण जैसे शब्द से ही आपत्ति है जिसका मतलब ही अधिकार
पूर्वक ग्रहण है. ये सही है कि हमारी व्यवस्था में जमीन पर राज्य का हक होता है
लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि बिना किसी न्यायोचित व्यवस्था के आप किसी से भी जमीन
ले लेंगे. 2013 में संसद से पास हुए भूमि अधिग्रहण कानून के पक्ष में खुद भाजपा ने
वोट किया था. फिर एक साल में उस कानून में ऐसा क्या गलत हो गया जिसे सुधारने के
लिए सरकार ने पहले तो अध्यादेश लाया और फिर संसद में मजबूरी में पेश किया. जिस
कानून में लीज और सामाजिक प्रभावों जैसे बातों को जोड़ने के लिए इसी पार्टी ने एक
साल पहले संसद में मांग की आज वही पार्टी इन्हीं बिंदुओं को कानून से निकालकर पेश
कर रही है.
बात ये नहीं है कि
ये कानून ना लाकर सरकार को देश के विकास की गति रोक देनी चाहिए. लेकिन हमें ये
नहीं भूलना है कि हम एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है. या तो पहले आप इस देश को लोगों
को बताइए कि आप पूरी व्यवस्था बदल रहे हैं या फिर बनी हुई व्यवस्था के हिसाब से ही
काम करें. हमें आपत्ति भूमि अधिग्रहण से नहीं बल्कि उसके तरीके से है. पहले तो ये
बताया जाए कि किन परियोजनाओं के लिए देश में भूमि अधिग्रहण की आवश्यक्ता है. लोगों
के बीच अगर ये धारणा है कि किन्ही विशेष घरानों के लिए देश में ऐसा कानून लाया जा
रहा है तो पूरी पारदर्शिता के साथ इसे साफ करना चाहिए. क्या सरकार के पास पहले
अधिग्रहित सारी जमीन खत्म या उपयोग हो चुकी है जो हम किसी नए अधिग्रहण की तैयारी
कर रहे हैं? जिन परियोजनाओं के लिए पहले जमीन ली गई क्या वो सभी चालू हैं या ऐसा भी है कि
परियोजना या तो बंद हो गई या बंद हो गई और उसकी जमीन अब भी प्रयोग की जा सकती है? मुझे लगता है कि इन सवालों के जवाब इस बिल को पेश करने से पहले देना जरूरी है.
अब अगर बात इस कानून
पर मेरे विरोध की करूं तो सबसे पहले तो मुझे ये बताया जाए कि इस देश में कोई कानून
बनाकर किसी को अदालत जाने से कैसे रोका जा सकता है? हमारी व्यवस्था में किसी भी तरीके और अन्याय और
असंतोष पर व्यक्ति को अदालत जाने का अधिकार है. तो आपके कानून में ऐसी कौन सी
आवश्यक्ता और कौन से तरीके से भूमि का अधिग्रहण होना है जिसके बाद आप नहीं चाहते
कि कोई भी अदालत जाए. दूसरी बात ये कि कोई भूमि पांच साल तक प्रयोग में नहीं आती
तो उसे वापस करने में हर्ज ही क्या है. क्या आप जमीन को कभी तो होगा कि सोच पर
अधिग्रहित करना चाहते हैं. या आप किसी व्यापारी की भांति जमीन के दाम बढ़ाकर उसका
प्रयोग करने वाले है? अगर ऐसा है तो ये गलत है क्योंकि आप सरकार हैं, आप लोक
कल्याण के लिए हैं पूंजी कल्याण के लिए नहीं. सरकार किसी जमीन को अधिग्रहित ही
करने के बजाए प्रोजेक्ट के हिसाब से जमीन क्यों नहीं लेती है? जैसे कि किसी रियल स्टेट के
मामले में जमीन को सीधे लेने के बजाए किसान या जमीन के मालिक से जमीन लीज पर ली
जाए जिससे कि लाभ के हिस्से से उसे भी फायदा हो. वैसे भी ये देखा गया है कि ऐसे प्रोजेक्ट
में जमीन जिस दाम पर ली जाती है उससे कई गुना अधिक दाम में वहां बने प्रोजेक्ट
बेचे जाते हैं ऐसे में उस आदमी का खुद को ठगा सा महसूस करना स्वाभाविक है.
हम एक ऐसे देश में
जी रहे हैं जहां कई तरह की विविधता है. किसी भी व्यवस्था से असंतोष दूसरी किसी
व्यवस्था को बढ़ावा देता है. नक्सलवाद इसका उदाहरण मान सकते हैं. जब आप के काम से
देश का एक वर्ग अपने आप को कटा हुआ और उससे अलग मानेगा तो वो आपका साथ नहीं देगा. आपने
ही कहा था कि अच्छे दिन आ गए हैं अब जवाब भी दे दीजिए कि ये अच्छे दिन आएं हैं तो
किसके?