ग्लास्गो कॉमनवेल्थ गेम्स, पहला दिन, महिला वेटलिफ्टिंग प्रतियोगिता, वर्ग 48 किलोग्राम. जब जूडो में देश के 4 खिलाड़ी मेडल के लिए होने वाले मैचों में अपना नाम तय कर चुके थे, ज्यादातर (उम्मीद कम है लेकिन फिर भी) लोग भारतीय महिला हॉकी टीम के हो रहे मैच पर ध्यान लगा रहे थे. तभी कॉमनवेल्थ में महिला वेटलिफ्टिंग की प्रतियोगिता शुरू हुई. भारत की ओर से दो खिलाड़ी इस खेल के अंतिम दौर में अपना नाम दर्ज करा चुकीं थीं. मैं भी टीवी के सामने तब पहुंचा जब ये देखा कि उनमें से एक पदक की दौड़ में सबसे आगे चल रही है. आप ये भी मान सकते हैं कि ये शायद संयोग रहा कि टीवी भी चालू था और उसमें वही प्रतियोगिता चल रही थी.
तभी स्क्रीन पर एक और लड़की आती है, वो भी भारत की ही खिलाड़ी है. 48 किलो की ये लड़की 92 किलो वजन को अपना लक्ष्य बनाती है. सामने इतने वजन को उठाती है, अपने कंधे पर लाती है, और फिर बड़ी आसानी से दोनों हाथों से उसे उठा लेती है. अब और खुशी मिलती है क्योंकि मेडल की दौड़ में पहले और दूसरे स्थान पर भारत का ही नाम दिखाई देता है... पर ये दोनों इससे खुश होने वाली नहीं, ये अपनी जीत को पक्का करने के लिए खुद को ही चुनौती देती हैं... चानू जहां 92 के बाद 95 किलो वजन उठाती है वहीं संजीता 92 के बाद 96 किलो वजन उठाती है. वजन उठाते समय जरा ध्याने से इन पर गौर करता हूं, पहले हाथों में मजबूती, कलाई में ताकत, मुठ्ठी कसकर बंद. और फिर उठता है वजन. वजन केवल उस लोहे के पहिए का नहीं, वजन उम्मीदों का, वजन सालों की मेहनत का, वजन मौके का, वजन संघर्षों का... और कंधे पर लाकर उसे सहारा दिया जाता है.
अपने दोनों हाथों से मजबूती से 96 किलो वजनी लोहे के इस पहिए को उठाए इस लड़की को देखकर क्या लगता है. मुझे तो इसके हाथों में वो सारे वजन नजर आते हैं जो मैंने उपर लिखे हैं. अब जरा इन दोनों को जान लें. देश को ग्लास्गो में पहला मेडल दिलाने वाली इन विजेता खिलाड़ियों की उम्र क्या होगी? सोना जीतने वाली संजीता केवल 20 साल की है तो चांदी पर कब्जा करने वाली चानू 19 साल की. उम्र में 1 साल का अंतर ही इनके पदकों का अंतर रह गया. अब जरा ये भी जान लीजिए कि ये कहां से हैं. ये दोनों खिलाड़ी मणिपुर की हैं. इस बात से क्या कहना चाहता हूं ये तो आप भी समझते हैं.
मैं बिल्कुल भी इस बात को प्रांतीयता में नहीं मोड़ रहा हूं, क्योंकि ये जीत भारत की जीत है. जब ये जीतती हैं तो केवल एक झंडा है जो उपर लहराता है. इनकी मेहनत से स्टेडियम में हमारे राष्ट्रगान की धुन बजती है. इन दोनों खिलाड़ियों की जीत शायद हमारे चेहरे पर मुस्कुराहट भी देती है. मेडल टैली में भी हम उपर उठ जाते हैं. खबर बना ली जाती है. देश का सिर गर्व से उपर भी उठ जाता होगा. अब क्या. सोना मिल गया, झंडा लहरा गया. जब ये देश वापस आए तो शायद इनके कुछ इंटरव्यू भी हो जाएं. कुछ ईनाम भी मिल जाएं... लेकिन फिर क्या... अगले कॉमनवेल्थ में हम फिर कुछ ऐसा बोलते नजर आएंगे कि पिछली बार हम जीतो तो थे शायद...
जब 48 किलो वजनी लड़की अपने हाथों से 96 किलो का वजन उठाती है तो उसे याद रखिए... सिर्फ इसलिए नहीं कि उसने पदक जीता है बल्कि इसलिए भी क्योंकि देश का झंडा उपर करने के लिए उसने 173 किलो वजन उठाया है. याद रखना मुश्किल है! कोई बात नहीं, याद रखिए कि कैसे हमने 28 साल बाद लॉर्ड्स में टेस्ट मैच जीता... कॉमनवेल्थ का क्या है, बड़ा ही अनकॉमन है ना... वैसे भी ये जीत तो भूलने के लिए तो है...